Thursday, July 23, 2015

माया कया है

माया का यदि विश्लेषण किया जाए तो यह दो शब्दो का संगम है - मा तथा या। देव भाषा संस्क्रुत में मा जा अर्थ होता है ' नहीं ' और या का अर्थ होता है ' जो ' अर्थात जो कुछ भी नही - नकारात्मक है, उसे माया कहते है।

वास्तविक रुप में यधपि यह कुछ भी नही, तथापि व्यवहारिक रुप में, यह बडी शक्तिशालिनी है। जडमें चेतन, तथा चेतन में जड का अधि - आरोप कर लेना इसका गुण है। असत को सत तथा सत को असत अथवा शरीर को आत्मा और आत्मा को शरीर समझने का नाम माया है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि भ्रमात्मक ज्ञान माया का स्वरुप है। इसका आकर्षण मरुस्थल (रेगिस्तान) में चमकती हुई रेत की तरह है, जिसे देख कर म्रुग अपनी तुष्णा (प्यास) बुझाने के लिए दौडता है, किन्तु भ्रम अथवा अज्ञान के कारण, उस की प्यास नहीं बुझती, क्योंकी वह केवल जल की प्रतीति होती हौ, वास्तविक जल नहीं। इसी प्रकार माया का आधार भी भ्रमात्मक ज्ञान है, असलीयत कुछ भी नहीं होती। " श्री मुख वाणी " में इस माया को आठ नामों से सम्बोधित किया गया है। यथा:-

मोह, अज्ञान, भरमना, करम काल और सुंन ।
ए सारे नाम नींद के, निराकार निरगुन ॥ (कलस ग़्रं.)

माया का भली भांति निरुपण करने पर इस तथ्य की पुष्टि होती हौ कि इस की उत्पत्ति स्रुष्टि के आदि से है अर्थात जब से स्रुष्टि का प्रारम्भ हुआ है, उसी के साथ इस का भी जन्म हुआ है। यही कारण है कि " श्री मुख वाणी " में इस ब्रह्मांड को मायावी अथवा ठगनेवाला कहा है। बडे बडे ज्ञानी मुनि एवं साधु जन भी इस के प्रभाव से बच न सके। एक मात्र प्रमात्मा का ध्यान ही इसका उपाय है..

प्रणाम जी

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