वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! बोधके निमित्त मैं तुम को बारम्बार सार कहता हूँ कि आत्मा का साक्षात्कार भावना के अभ्यास बिना न होगा | यह जो अज्ञान अविद्या है सो अनन्त जन्म का दृढ़ हुआ भ्रम है..
हे राम जी! जो कुछ वृत्ति बहिर्मुख है सो अविद्या है, क्योंकि वह वृत्ति आत्मतत्त्व से परेे है और जो अन्तर्मुख आत्मा की ओर है सो विद्या ,अविद्या को नाश करेगी |
अविद्या के दो रूप हैं-एक प्रधान रूप और दूसरा निकृष्टरूप है | उस अविद्या से विद्या उपजकर अविद्या को नाश करती है और फिर आप भी नष्ट हो जाती है |(कयोंकी प्रमातमा विद्या और अविद्या से परे है..इन दोनो के समाम्त होने पर ही वो मिलता है) जैसे बाँस से अग्नि उपजती है और बाँस को जलाकर आप भी शान्त हो जाती है तैसे ही जो अन्तर्मुख है सो प्रधानरूप विद्या है और जो बहिर्मुख है सो निकृष्ट रूप अविद्याभाव को नाश करे | हे रामजी | अभ्यास बिना कुछ सिद्ध नहीं होता | जो कुछ किसी को प्राप्त होता है सो अभ्यासरूपी वृक्ष का फल है | चिरकाल जो अविद्या का दृढ़ अभ्यास हुआ है तब अविद्या दृढ़ हुई है | जब आत्मज्ञान के निमित्त यत्न करके दृढ़ अभ्यास करोगे तब अविद्या नष्ट हो जावेगी |
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प्रणाम जी
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