Friday, July 17, 2015

परमधाम के आठ सागरों की बातुनी हकीकत


प्रणाम साथ जी

कृपया ध्यान पूर्वक पढ़ें
आठ सागर का बहोत सुन्दर विवरण है ..ये मेरी आत्मा को बहोत िप्रय है..
[ परमधाम कि बड़ी वृत जुगलदासजी महराज लिखित ] ..आशा है आपको बहोत आनंद आयगा....

श्री राजजी के दिल में जो गुण है उसको जाहेरी भाव से आठ सागर कहते है |
आठ सागर कि विशेषता जो है उसका संबंध पर आतम और आतम से जुड़ा है उसको हकीकत और मार्फ़त के रूप से किस तरह जानते है ? वो जाननेका नम्र प्रयास किया है |

आठ सागर में से चार सागर राजजी तरफ और चार सागर श्री श्यामाजी के तरफ माने जाते है जाहेरी रूप से |

[१] नूर सागर - श्री राजजी के शोभा का सागर है |
[२] नीर सागर - सखियों के एक तन कि शोभा का सागर है |
[३] क्षीर सागर - एक दिली का सागर है |
[४] दधि सागर - श्री राजजी के सिंगार का सागर है |
[५] धृत सागर- श्री राजजी के इश्क़ का सागर है |
[६] मधु सागर- इलम का सागर है |
[७] रस सागर - निसबत का सागर है |
[८] सर्व रस सागर - महेर का सागर है |

|| आतम चितवनि ||
आत्मा को श्री परमधाम के मार्ग पर चढ़ने के लिए ये आठों सागर बातून अर्स भीतर बयान किया जाता है |

रूह मोमनो कि पर आतम [तन] में जो जाग्रत अवस्था है वह रस सागर है |
पर आतम [तन] में जो श्री राजजी का इश्क़ रोम रोम में भरा है वह सर्व रस सागर है | रूह मोमनो को खेल देखने कि चाहना हुई तब श्री राजजी ने फरामोशी रूपी आवरण डाल कर , सुपने का तन बनाकर दुःख रूपी माया का खेल अर्स दिल भीतर
ही दिखाने लगे | यह तो नीर सागर हुआ |

उसको चोपाई से देखते है ------------

सुपन होत दिल भीतर , रूह कहु ना निकसत |
ऐ चौदे तबक जरा नहीं,ऐ तो दिल में बड़ा देखत || (सिणगार ११/७९)

आतम इस नीर सागर पर खड़ी है |
सम्पूर्ण सागरो को उलंघ कर सर्व रस सागर जो श्री राजजी का स्वरुप हैतिन श्री राजजी से मिल ने के वास्ते अर्ज विनती करती है | तब श्री राजजी ने
दुल्हिन पर महेर करके क़ौल रूपी बेसुमार जो शोभा है तिसको दिया अर्थात इल्म दिया | तिस इल्म के मगज भेदों को रूह ने समझा तब जानो कि रूह शोभा के सागर पर पहुंची | रूह ने सब तरह से जानकर अपने गुण,अंग ,प्रकृति जो
अलग -अलग थे, उसको तरह तरह से समझा कर अनेक दुःख सहन कर के सब को एक कर के एक श्री राजजी में लगाया | तब मानो रूह क्षीर सागर पर पहुंची |
जब रूह ने एक दिली करी तब बाद में रूह ने वृह रूपी सिंगार किए | अर्थात सब गुण, अंग ,इन्द्रियो के सहित श्री राजजी का वृह करने लगी ,तब जानो कि रूह दधि सागर जो श्रृगांर का सागर है उस पर पहुंची | दुःख उठाकर तो एक दिली किया,एक दिली होने से रूह वृह रस को प्राप्त भई | " दुःख से विरहा आवहि " जब रूह ने वृह के बस्तर भूषण धारण किये श्वाश-श्वाश में राजजी को पुकारने लगी तब श्री राजजी ने कृपा करके अपने जोश का जो नूरमई स्वरुप है उसको अर्स दिल में दिखाया | तब मानो कि रूह दधि सागर से नूर सागर पर पहुंची तब नूर के स्वरुप ने रूह के प्रति कृपा करके इश्क़ दिया, तब मानो रूह धृत सागर[इश्क़] पर पहुंची | इश्क़ सागर ने रूह के प्रति पूर्ण तरह का इश्क़ देकर उतर दिशा में जो मधु सागर है वहाँ इल्म के सागर में पहुचाया | तब इल्म सागर ने सब बातों कि पहचान कराई जब अपने पर आतम तन कि पूर्ण पहेचान हुई और धनि के अंगना कि पूर्ण हुज्जत भर आयी तब रूह रस सागर जो निस्बत का सागर
है वहाँ पहुंची |

नूर ने इश्क़ दिया , इश्क़ ने बेशकी इल्म दिया, बेसकी इल्म ने पर आतम तन में पहुँचाया .जब रूह पर आतम तन को पहोंची तब रूह पर आतम तन को लेकर जो श्री राजजी सिंहासन पर विराजमान है उनके अंगो-अंग लिपटी अर्थात भेट्ने लगी |
इस तरह से रूह नूर सागर से होकर सर्व रस सागर पर प्राप्त हुई |

यह विधि हर एक रूह पर गुजरती है मानिन्द सीढ़ी के अर्थात सात भूमिका जैसे ----

प्रथम भूमिका सुभ इच्छा है,
दूजी उपासना है ,
तीजी दृढ वैराग्य है ,
चौथी है ग्यान कि,
पांचवी जीवन मुक्ति है ,
छठी विग्यान है,
सातवी तुरी अवस्था है | ऐ भोमका सात प्रमाण |

तुरी अवस्था पर आतम तन को कहते है , तुरीयातीत श्री राज जी को
कहे जाते है |

राजजी के दिल में कई गँजान- गंज भेद अपरम्पार भरे हु ऐ है |
जिसको श्री राजजी अपनी महेर में लेते है उसी रह[आत्मा] को यह अमूल्य निधि बक्शीश करते है |

[ परमधाम कि बड़ी वृत जुगलदासजी महराज लिखित ]

ये आठो सागर जाहेरी और बातूनी रूप से है | जिस आतम ने राजजी कि सोभा ,सिणगार दिल में बसाया है, परमधाम जैसी रहनी में है उस साथ को समझ ने में कठिनाई नहीं है | जो सुन्दरसाथ अब तक परमधाम में कौन है ? उसका निर्णय ले नहीं सका वो क्या जान सकता है ? ये तो मार्फ़त कि बात है |
ये आठो सागर कि और भी बातूनी हकीकत है ..|
Satsangwithparveen.blogspot.com

|| प्रणाम जी ||

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