परमात्मा के लिए अतृप्ति, महातृप्ति है। संसार में तो तृप्ति भी तृप्ति नहीं है। संसार में तो अतृप्ति ही अतृप्ति है। संसार का स्वभाव जलना है, जलाना है—लपटें ही लपटें हैं। इसे इस प्रकार समझें -
बुद्ध ने जब अपना राजमहल छोड़ा और उनका सारथी उन्हें समझाने लगा कि आप कहां जाते हैं? कहां भागे जाते हैं? पीछे लौट कर देखें महल—ये स्वर्णमहल, यह सब सुख—शांति, यह तृप्ति का साम्राज्य, यह पत्नी सुंदर, यह बेटा, यह पिता—ये कहौ मिलेंगे? ये सब सुख—चैन! बुद्ध ने लौट कर देखा और कहा : मैं तो वहां केवल लपटों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता हूं। सब जल रहा है। न कोई स्वर्णमहल है, न कोई पत्नी है, न कोई पिता है। सब जल रहा है। सिर्फ लपटें ही लपटें हैं! सारथी, बुद्ध ने कहा, तुम लौट जाओ। मैं अब इन लपटों में वापिस न जाऊंगा।
सारथी ने बड़ी कोशिश की। बूढ़ा आदमी था और बचपन से बुद्ध को जाना था, बड़े होते देखा था; लगाव भी था। समझाया —बुझाया, चुनौती दी। आखिर में कुछ न बना तो उसने चोट की। उसने
कहा : यह पलायन है। यह भगोड़ापन है। कहां भागे जा रहे हो? यह कोई क्षत्रिय का गुण— धर्म नहीं। बुद्ध हंसे और उन्होंने कहा. घर में आग लगी हो तो घर के बाहर आते आदमी को तुम भगोड़ा कहोगे? और वह जो आग के बीच में बैठा है उसको तुम बुद्धिमान कहोगे?
तो उस सारथी ने कहा : लेकिन आग लगी हो तब न?
बुद्ध ने कहा १ वही कठिन है, मुझे दिखाई पड़ता है कि आग लगी है; तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता आग लगी है। हमारी भाषाएं अलग हैं। मैं कुछ कह रहा हूं तुम कुछ समझ रहे हो। तुम कुछ कहते हो, उससे मेरे संबंध टूट गये हैं।
इस प्रकार तन से संसार छोडना उतना महत्वपूर्ण नही है मन से छोडना परम आवश्यक है और ये तभी होगा जब संसार से तृप्ती और परमात्मा अतृप्ती होगी अर्थात परमात्मा के लिय प्यास को निरंतर बढाना होगा ..
प्रणाम जी
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