Thursday, July 23, 2015

सुप्रभात जी

ऋग्वेद कहता है
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 16

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्त्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।

यज्ञेन-यज्ञम्-अ-यजन्त-देवाः-तानि-धर्माणि-प्रथमानि- आसन्-ते- ह-नाकम्- महिमानः- सचन्त- यत्र-पूर्वे-साध्याः-सन्ति देवाः।

अनुवाद:- जो (देवाः)  देव स्वरूप भक्तात्माएं (अयज्ञम्)  जड धार्मिक पूजा के स्थान पर (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक पूजा के आधार पर (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन्) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात् सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्र) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सष्टी के (देवाः) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं (सन्ति) रहती हैं।

भावार्थ:- जो ब्रह्म के समान आत्मांये ( ब्रह्मआत्मांये) जडपूजा को छोडकर एकमएकमात्र सत्य व आनंद स्वरूप परमात्मा की अन्नय भक्ति करतीं है वे तारतम ग्यान रूपी महान भक्ति शक्ति युक्त होकर अपनें परमधाम चली जातीं है जाहां पहले से उनकी परआतम रहती हैं..
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प्रणांम जी

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