सभी ध्रम ग्रन्थो मे तीन पुरुषो का जिक्र किया गया है अर्थात प्रमातमा तीन रुपो मे लीला करते है गीता मे
(भगवत गीता अध्याय १५ - स्लोक १६ तीन पुरुष का वर्णन )
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च क्षर: सर्वाणि भूतानि कुटस्थो अक्षर उच्यते। उत्तम: पुरुषस्त्त्वन्य: परमात्मेत्युदाह्रत:।
इस बिराट ब्रह्माण्ड मे क्षर नाशवान और अविनाशी अनादि अक्षर दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूतप्राणियों सहित नारायण पर्यन्त के लोकालोक सभी नाशवान हैं, और अक्षर पुरुष जो नारायण के रचयिता है, वे अविनाशी है । इस से आगे एक अन्य परमपुरुष अक्षरातीत है, उन्हीं को ही "परमात्मा" कहा जाता है।
नानक जी ने भी तीन पुरुषो का जिक्र कीया है
क्षर के पार अक्षर के पारा ताय पुरुष का करो विचारा।
कुरान मे भी
लाह
इलाह
और इलल्लाह ये तीन पुरुषो का जिक्र है
इसी प्रकार बाइबल मे
God
Truth
Suprem truth god
का वणर्न है
तो आइये जानते है तीन पुरुषो की लीला मेरा आप से चरण वन्दन निवेदन है क्रपया धर्य पूर्वक पूरा पढें प्रणाम जी...
तीन पुरुष और उनकी लीला-
गीता में कहा गया है कि दो पुरुष हैं- क्षर एवं अक्षर । सभी प्राणी एवं पंचभूत आदि क्षर हैं तथा इनसे परे कूटस्थ अक्षर ब्रह्म कहे जाते हैं । इनसे भी परे जो उत्तम पुरुष अक्षरातीत हैं, एकमात्र वे ही परब्रह्म की शोभा को धारण करते हैं । (गीता १५/१६,१७)
कुछ लोग भ्रमवश प्रकृति को अक्षर कहते हैं । इस सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त कारण प्रकृति तो जड़ तथा नश्वर है । इसके अतिरिक्त, यदि प्रकृति अक्षर है तो उसे पुरुष के रूप में वर्णित क्यों नहीं किया गया ?
कुछ लोग अज्ञानता के कारण जीव तथा नारायण को ही अक्षर कहते हैं । नारायण और जीव एक ही स्वरूप हैं तथा दोनों महाप्रलय में नष्ट हो जाते हैं ।
तारतम ज्ञान की दृष्टि में यह सम्पूर्ण साकार-निराकार जगत (प्रकृति, नारायण सहित) क्षर है, इससे परे तेजमय अविनाशी ब्रह्म अक्षर हैं तथा उनसे भी परे सच्चिदानन्द स्वरूप अक्षरातीत हैं ।
इन तीन अलौकिक पुरुष व उनकी लीलाओं का विस्तृत वर्णन पढ़ें-
१. क्षर पुरुष
२. अक्षर पुरुष
३. अक्षरातीत परब्रह्म
क्षर पुरुष
अक्षर ब्रह्म के मन (अव्याकृत) के स्वप्न में मोह सागर (महत्तत्व) में नारायण (आदि पुरुष , विराट पुरुष) का स्वरूप प्रकट होता है , जिन्हें क्षर पुरुष या प्रणव (ॐ) कहते हैं । उन्हें ही आदि नारायण , हिरण्यगर्भ , महाविष्णु , प्रथम पुरुष , शब्द ब्रह्म , आदि नामों से जाना जाता है । इन्हीं से वेद प्रकट होते हैं तथा सभी जीव इन्हीं की चेतना का प्रतिभास स्वरूप हैं। सम्पूर्ण जीव समुदाय , पञ्च भूतात्मक जगत, अष्टधा प्रकृति (पञ्चभूत, मन, बुद्धि, अहंकार) , आदि नारायण तथा महाशून्य (मोह सागर) सभी क्षर पुरुष के अन्तर्गत आते हैं ।
इत अछर को विलस्यो मन, पांच तत्व चौदे भवन ।
यामें महाविष्णु मन, मन थें त्रैगुन, ताथें थिर चर सब उतपन ।। (श्रीमुख वाणी- प्र. हि. ३७/२४)
इस मोह सागर के अन्दर अक्षर ब्रह्म के मन के स्वरूप अव्याकृत के मन ने प्रवेश किया, जिसके कारण यह पाँच तत्व तथा चौदह लोक का ब्रह्माण्ड बना । इसमें अव्याकृत का मन के स्वरूप महाविष्णु (क्षर पुरुष) बने और फिर इस के तीन गुणों से सदाशिव, ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु और शिव उत्पन्न हुए और उनसे ही यह सारा संसार बना है ।
नारायण की नाभि से कमल निकलता है और उससे ब्रह्मा प्रकट होते हैं । वह ब्रह्मा वेदों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता कहलाते हैं और संसार रूपी वृक्ष के बीज हैं । अहंकार को ही नाभि कहा गया है। कमल की नाल इच्छा शक्ति और कमल का फूल उनके मन का प्रतीक है । आदि नारायण के मन में जब यह इच्छा हुई कि मै अनेक हो जाऊँ, तो उससे अहंकार उत्पन्न हुआ, जिससे सभी देव, जीव और यह मिटने वाला संसार खड़ा हुआ ।
कालमाया के ब्रह्माण्ड में द्वैत की लीला है अर्थात् जीव (नारायण, त्रिदेव, देवी-देवता, मनुष्य, अन्य चराचर प्राणी) तथा प्रकृति (माया) की लीला है । इसमें जन्म-मरण , सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है । अहंकार रूपी कड़ी जब तक नहीं छूटती, तब तक संसार झूठा होते हुए भी सच्चा लगता है और उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता । जब तक जीव का अहंकार नष्ट नहीं होगा तब तक आवागमन का चक्र समाप्त नहीं हो सकता । अतः नारायण से लेकर जीवों तक यह सारी सृष्टि मोह (अज्ञान) रूप है । ब्रह्मज्ञान (तारतम) व प्रेम का मार्ग पकड़कर ही इस भवसागर को पार किया जा सकता है ।
जिसका प्रतिदिन क्षरण हो, उसे ही क्षर कहते हैं । इस क्षर ब्रह्माण्ड को ही हद , कालमाया , मोह जल , भवसागर , आदि नामों से भी जाना जाता है । जिस प्रकार नींद टूटने पर सपना टूट जाता है तथा स्वप्न के सभी दृश्य समाप्त हो जाते हैं , उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म के मन (अव्याकृत) का स्वप्न टूटते ही सम्पूर्ण जगत महाप्रलय में लीन हो जाता है ।
अक्षर ब्रह्म
क्षर से परे जो अविनाशी, अखण्ड, नूरमयी तत्व है, उसे अक्षर कहा जाता है ।
अछर सरूप के पल में , ऐसे कई कोट इंड उपजे ।
पल में पैदा करके , फेर वाही पल में खपे ।। (श्रीमुख वाणी- कि. ७४/२६)
अक्षर ब्रह्म के एक पल में करोड़ों ब्रह्माण्ड बनते और नष्ट हो जाते हैं ।
उस सर्वोत्पादक ब्रह्म (अक्षर ब्रह्म) ने द्यौ और पृथ्वी को दृढ़ता से स्थिर किया । उसने ही आनन्दमय लोक और उसने ही प्रकाशमय मोक्षधाम (योगमाया) धारण कर रखा है । उसने ही अन्तरिक्ष और लोक-लोकान्तरों को बनाया है । उसकी कृपा से विद्वान मोक्ष को प्राप्त करते हैं। (अथर्ववेद १३/१/७)
जो उत्पन्न हुआ, जो उत्पन्न होने वाला है और जो यह वर्तमान जगत है, इस सब के प्रति पुरुष (अक्षर ब्रह्म) ही अपना विक्रम दर्शा रहा है । सभी चराचर प्राणी तथा प्राकृतिक लोक इस पुरुष के एक पाद (चतुर्थ पाद मनस्वरूप अव्याकृत) के संकल्प से निर्मित हैं और इस पुरुष के तीन पाद (सबलिक, केवल, सत्स्वरूप) उत्पत्ति तथा विनाश से रहित अपने अखण्ड प्रकाशमय स्वरूप में विद्यमान रहते हैं । (ऋ. १०/९०/२, यजु. ३१/२, साम. आरण्यक ६/४/५)
अक्षर ब्रह्म जो इच्छा करते हैं, वही इच्छा सत् स्वरूप में आ जाती है । वही इच्छा केवल, सबलिक होते हुए मन के स्वरूप अव्याकृत में आ जाती है । उसी से सृष्टि की रचना होती है। अक्षर ब्रह्म का चौथा पाद अव्याकृत, इस प्राकृतिक जगत की उत्पत्ति का निमित्त कारण है । उसके संकल्प मात्र से उत्पन्न प्रकृति असंख्यों लोक-लोकान्तरों का निर्माण करती है । निमित्त कारण होने के कारण अव्याकृत ब्रह्म इस जगत से परे है । इस जड़ जगत में केवल उनकी सत्ता है, उनका स्वरूप नहीं । अतः अव्याकृत भी अखण्ड हैं।
अव्याकृत से परे अक्षर ब्रह्म के तीन पाद इस प्रकार हैं - सबलिक ब्रह्म (चित्त स्वरूप), केवल ब्रह्म (बुद्धि स्वरूप), सत्स्वरूप ब्रह्म (वास्तविक स्वरूप) । सबलिक ब्रह्म के सूक्ष्म में चिदानन्द लहरी नामक शक्ति विराजमान है जो माया और त्रिगुण (आदि नारायण) का मूल स्थान है । शंकराचार्य जी ने 'सबलिक ब्रह्म' को ही पूर्ण ब्रह्म मानते हुए चिदानन्द लहरी को उनकी महारानी माना है (सौन्दर्य लहरी ग्रन्थ- श्लोक ९८) । सबलिक से परे 'केवल ब्रह्म' की नौ रसों वाली आनन्दमयी भूमि है (तैतरीयोपनिषद्) । इससे परे अक्षर ब्रह्म के अहं का स्वरूप 'सत्स्वरूप ब्रह्म' हैं । यह तीनों पाद अखण्ड, प्रकाशमय और सुखमय हैं । इन्हें ही वेद में त्रिपाद अमृत कहा गया है ।
अक्षर ब्रह्म की लीला के इस अखण्ड ब्रह्माण्ड को बेहद या योगमाया कहते हैं । यह ब्रह्माण्ड चैतन्य, अविनाशी है तथा इसके कण-कण में करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमय ब्रह्म का स्वरूप विद्यमान है । यहाँ अक्षर ब्रह्म के अन्तःकरण की अद्वैत लीला अखण्ड रूप से होती है । अक्षर ब्रह्म अपनी अभिन्न शक्ति स्वरूपा अखण्ड चैतन्य माया के साथ लीला करते हैं ।
अक्षर ब्रह्म का मूल स्वरूप इन चारों अखण्ड पादों से ऊपर है । वह सच्चिदानन्द परब्रह्म के सत् स्वरूप हैं तथा योगमाया से परे अखण्ड परमधाम में रहते हैं । अक्षर ब्रह्म का स्वरूप अखण्ड एक रस है । वह अनादि काल से जैसा था, वैसा ही अब भी है और अनन्त काल के पश्चात् भी वैसा ही रहेगा । उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति में कभी भी कमी नहीं आ सकती । उसकी उपासना करके, साक्षात्कार करने वाले अविनाशी धाम को प्राप्त होते हैं ।
अक्षरातीत परब्रह्म
पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप निराकार (मोहतत्व) से परे बेहद, उससे परे अक्षर से भी परे है । मुण्कोपनिषद् में कहा गया है कि उस अनादि, अविनाशी, कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे जो चिदघन स्वरूप है, उन्हें ही अक्षरातीत कहते हैं । परब्रह्म, परमात्मा, पूर्णब्रह्म, सनातन पुरुष, श्री राज, प्राणनाथ, आदि उन्हीं के सम्बोधन हैं ।
अतिशय तेज (असंख्यों सूर्य) से प्रकाशमान, अति मनोहारिणी, यशोरूप तेज से चारों ओर से घिरी हुई, अति तेजस्विनी, किसी से भी न जीती गई उस ब्रह्मपुरी में ब्रह्म प्रवेश किए हुए हैं । (अथर्ववेद १०/२/३३)
आठ चक्रों और नवद्वारों से युक्त, अपने आनन्द स्वरूप वालों की, किसी से युद्ध के द्वारा विजय न की जाने वाली (अयोध्या) पुरी है । उसमें तेज स्वरूप कोश सुख स्वरूप है जो ज्योति से ढका हुआ है (अथर्ववेद १०/२/३१) । यहाँ आठ चक्रों का तात्पर्य शरीर के आठ चक्रों से अथवा प्रकृति के आठ आवरणों से नहीं है क्योंकि यह तो नाशवान हैं, जबकि इस ब्रह्मपुरी को अमृत स्वरूप कहा गया है । श्रीमुख वाणी में वर्णित परमधाम को घेरकर आए आठ सागरों को ही आठ चक्र कहकर सम्बोधित किया गया है । इसी प्रकार नवद्वारों को परमधाम की नव भूमियों के लिए वर्णित किया गया है । अयोध्या कहने का अभिप्राय है कि इस परमधाम में संसार का कोई भी जीव (नारायण सहित) ध्यानावस्था में कदापि प्रवेश नहीं कर सकता । सशरीर तो कोई भी प्राणी निराकार से आगे योगमाया में भी नहीं जा सकता ।
बुध तुरिया दृष्ट श्रवना , जेती गम वचन ।
उतपन सब होसी फना , जो लो पोहोंचे मन ।। (श्रीमुख वाणी- कि. २७/१६)
बुद्धि, चित्त, मन, दृष्टि, श्रवण और वाणी की पहुँच से वह परब्रह्म सर्वथा परे हैं । यह उत्पन्न होने वाला सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही नश्वर है । इसलिए यहाँ की किसी भी वस्तु से उस परम तत्व को कहा नहीं जा सकता है ।
अक्षरातीत नूरजमाल , ए तरफ जाने अछर नूर ।
एक या बिना त्रैलोक को , इन तरफ की न काहू सहूर ।। (श्रीमुख वाणी- सि. २/५४)
अर्थात् एकमात्र अक्षर ब्रह्म ही पूर्णब्रह्म अक्षरातीत (नूरजमाल) के विषय में जानते हैं । उनके अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अक्षरातीत की कोई भी जानकारी नहीं है । अतः पूर्ण ब्रह्म का विषय अति गोपनीय है तथा तारतम ज्ञान के बिना उन्हें नहीं जाना जा सकता है ।
उस तेजोमय कोश में तीन अरे (अक्षर ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म तथा आनन्द अंग) तीन (सत् चित् आनन्द) में प्रतिष्ठित हैं । उसमें जो परम पूज्यनीय तत्व, परमात्मस्वरूप हैं, उसका ही ब्रह्मज्ञानी लोग ज्ञान किया करते हैं । (अथर्ववेद १०/२/३२)
वह परब्रह्म सत् , चिद् , आनन्द लक्षणों वाला है, इसलिए उसे सच्चिदानन्द कहते हैं । परब्रह्म स्वयं चिदघन स्वरूप हैं, उनकी सत्ता का स्वरूप अक्षर ब्रह्म हैं तथा आनन्द का स्वरूप श्री श्यामा जी हैं । यह तीनों मिलकर सच्चिदानन्द स्वरूप कहलाते हैं । वैसे तो वह तीनों एक ही स्वरूप माने जायेंगे, परन्तु उनमें लीला रूप में भेद है । अक्षर ब्रह्म सत्ता के स्वरूप हैं जबकि अक्षरातीत अपनी आनन्द अंग श्यामा जी व आत्माओं के साथ पवित्र प्रेम व आनन्द की लीला करते हैं ।
अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म श्री राज जी का स्वरूप अक्षर ब्रह्म की भांति सर्वदा एकरस रहता है । उनके स्वरूप में न तो ह्रास होता है, न ही विकास । उनका स्वरूप नूरमयी (शुक्रमयी), अनन्य प्रेममयी और आनन्दमयी है ।
सरूप सुन्दर सनकूल सकोमल , रूह देख नैना खोल नूरजमाल । (श्रीमुख वाणी- कि. ११२/१)
श्री महामति जी कहते हैं कि हे मेरी आत्मा ! तू अपने नेत्रों को खोलकर अपने आधार (अक्षरातीत) का दर्शन कर, जिनका स्वरूप अति सुन्दर, प्रफुल्लित और कोमल है ।
इन सिंघासन ऊपर , बैठे जुगल किसोर ।
वस्तर भूखन सिनगार , सुन्दर जोत अति जोर ।। (श्रीमुख वाणी- सागर १/११८)
परमधाम में सिंहासन पर अपने अनुपम किशोर स्वरूप में श्री राज श्यामा जी (पूर्णब्रह्म अक्षरातीत व उसकी आनन्द स्वरूपा) विराजमान हैं । उनके वस्त्र, आभूषण तथा श्रृंगार ज्योति से परिपूर्ण अत्यधिक सुन्दर हैं ।
परमधाम में स्वलीला अद्वैत है । वहाँ का कण-कण सच्चिदानन्दमयी है । जिस प्रकार चन्द्रमा से चांदनी, सागर से लहरें, सूर्य से किरणें अलग नहीं होती, उसी प्रकार सच्चिदानन्द परब्रह्म से आत्मायें कभी अलग नहीं होती , बल्कि उन्ही का स्वरूप होती हैं । यही 'स्वलीला अद्वैत' का रहस्य है ।
अछरातीत के मोहोल में , प्रेम इस्क बरतत ।
सो सुध अक्षर को नहीं , जो किन विध केलि करत ।। (श्रीमुख वाणी- कि. ७४/२९)
अक्षरातीत परब्रह्म के रंगमहल में अनन्य प्रेम (इश्क) की सर्वदा ही लीला होती रहती है । अक्षरातीत अपनी प्रियाओं (आत्माओं) से किस प्रकार प्रेम की लीला करते हैं, इसकी जानकारी अक्षर ब्रह्म को भी नहीं थी ।
परमधाम भी अक्षरातीत के समान नूरमयी, मनोहारिणी व अत्यधिक प्रकाशमान है । वहाँ प्रत्येक वस्तु में चार गुण हैं- चेतनता, नूर (तेज), कोमलता और सुगन्धि । वहाँ की हर वस्तु अक्षरातीत का ही स्वरूप है, उन्हीं के समान चेतन और उनकी प्रेम की लीला में भली प्रकार सम्मिलित होती है । प्रत्येक वस्तु प्रेम और आनन्द के रस से ओत-प्रोत है ।