Monday, August 31, 2015



माया के इस लुभावने खेल को देखकर साधू-सन्त प्रत्यक्ष रुप से सावधान करते हैं। तुम इसमें बाह्य रुप से रहते हुए भी आन्तरिक रुप से अलग ही रहो, जिससे तुम्हें माया के अथाह बन्धनों से छुटकारा मिल सके।  बार-बार इस प्रकार का उत्तम समय नहीं आने वाला है और न कोई तुम्हें इस प्रकार बोल- बोलकर समझायेगा। ज्ञान द्वारा प्रबोधित होने के पश्चात् तुम सबके सत्य कथनों के सार तत्व को ग्रहण करो।  उस सार का भी सार यह है कि उस सच्चिदानन्द परब्रह्म के चरणों से ही अपना अटूट बन्धन बांधो और उनके अखण्ड प्रेम तथा आनन्द में हमेशा डूबे रहो। माया के कार्यों को करते हुए भी माया में लिप्त न हो। इसका परिणाम यह होगा कि संसार को छोड़ते समय हृदय में माया की चाहना नहीं रहेगी।

प्रणाम जी 
पुराण संहिता के अध्याय २६ श्लोक ८०,८१,८२ में  सुन्दर वर्णन है-                        

   बारह हजार सखियां, जो अक्षरातीत की अंगना हैं, माया का खेल देखने की इच्छा से इनकी मनोवृत्ति (सुरता) गोकुल में गई । वे गोपों के घरेलू कार्यों को करती हुई वहीं स्थित हो गईं । तथा माया जनित मिथ्या धारणा के अधीन होने के कारण अपने वास्तविक स्वरूप की खोज से रहित हो गईं । मूल मिलावा में विराजमान अक्षरातीत की वे प्रियायें अपने स्थानों पर बैठी ही रहीं । अक्षरातीत के सामने समूहबद्ध बैठी हुईं ही वे सपने के खेल में मोहित हो गईं ...

प्रणाम जी

Sunday, August 30, 2015

सत्य के व्यापारियों

सुप्रभात जी

सत्य के व्यापारियों अर्थात् परब्रह्म को पाने की राह पर कदम बढ़ाने वालों ! मैं आपको एक बात समझा कर कह रहा हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनिए । यह संसार बाजीगर के खेल की तरह माया का ऐसा फन्दा है, जिसमें हर कोई उलझा हुआ है । इस माया ने जीव को तृष्णा की गांठ देकर मौत की फांसी लगा रखी है । साथ ही विषयों में उल्टा लटका रखा है। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, तथा मत्सर (ईर्ष्या) के अनेकों बन्धनों से इस प्रकार बांध दिया गया है, जिसे कोई भी खोल नहीं पाता है ..सावधान रहो ये माया बहोत ठगनी है तुम इसके तामसिक और राजसी रूप से तो किसी तरह पार पा लोगे पर  इसका सात्विक रूप बहोत भूलभुलयीया है जिस से पार पाना बहौत कठिन है..

प्रणाम जी

दिव्य ब्रह्मपुर धाम है , घर अक्षरातीत निवास ।

निजानन्द है सम्प्रदा , ए उत्तर प्रस्न प्रकास ।।

ब्रह्मसृष्टियों का धाम दिव्य ब्रह्मपुर (परमधाम) है, जो क्षर व अक्षर से परे स्थित है । उस परमधाम का कण-कण तेज, सुगन्धि, चेतनता और आनन्द से परिपूर्ण है । वही धाम अक्षरातीत व ब्रह्मसृष्टियों के मूल तनों (परआतम) का असल निवास है । यहां के कण-कण में अक्षरातीत का स्वरूप विराजमान होने से इसे स्वलीला अद्वैत कहा जाता है ।

जो सर्वज्ञ, सबको जानने वाला ब्रह्म है, जिसकी महिमा जगत में है, निश्चित रूप से वह ब्रह्म अमृतस्वरूप दिव्य ब्रह्मपुर में स्थित है । (मुण्डक. २/२/७-३९)

उपरोक्त पद्धति को मानने वाला समुदाय ही 'श्री निजानन्द सम्प्रदाय' कहलाता है ..(याहां ये जान्ना आवयश्क है की बृह्म को कभी भी समप्रदाय में नही बांधा ता सकता लेकीन कयोंकी जीवों को पद्धति बताई गई है इसलिय उनकी भाषा मे सम्प्रदाय शब्द का परयोग किया गया है)  ब्रह्मसृष्टियों के लिय सम्प्रदाय जैसी कोइ सीमा नही होती कयोंकी वो अखंड और अनंत आनंद के धाम से आई है इसलिय उनके हृदय मे सम्प्रदाय जैसी संकिर्ता नही आती इनके भाव हर क्षेत्र में  अन्नत और संकिर्ता से परे ही होते है ..इसलिय  इनका प्रवर्तन सच्चिदानन्द परब्रह्म की आह्लादिनी शक्ति श्री श्यामा जी ने किया है ।

प्रणांम जी
कामी अनन्त बार मरता है जितनी कामना उतनी बार मृत्यु | क्योंकि जितनी बार कामना उतनी बार जन्म | जीवात्मा की हर कामना एक जन्म बन जाती है | जैसे जंग लोहे से उत्पन्न हो कर उसी को खाते है, उसी प्रकार साधनात्मक अनुशासन का उल्लघंन करने वाले मनुष्य के कर्म उसे दुर्गति को पहुंचाते है ..

प्रणाम जी

Saturday, August 29, 2015



हे मेरी आत्मा ! तूं इस झूठे संसार को देख रही है, इसलिये तुम्हारे और परमात्मा के बीच अलगाव का आभास हो रहा है। वस्तुतः वे तो तुमसे रंच मात्र भी अलग नहीं है, बल्कि शाहरग (प्राण नली) से भी अधिक निकट हैं। माया की इच्छा के कारण तुमने ही अपने और परमात्मा के बीच में परदा कर लिया है। तारतम ज्ञान के प्रकाश ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आत्मा और परमात्मा के बीच किसी भी प्रकार का भेद नहीं है।

प्रणाम जी

बोले चाले पर कोई न पेहेचाने, परखत नहीं परखानो ।
महामत कहें माहें पार खोजोगे, तब जाए आप ओलखानो ।।

अनेक लोगोंने परमात्माके विषयमें ज्ञाानोपदेश दिया तथा अनेक लोगोंने परमात्माकी प्राप्तिके लिए साधनाएँ भी कीं किन्तु किसीने भी उन्हें नहीं पहचाना. इस प्रकार प्रयत्न करनेपर भी पहचान योग्य परब्रह्म परमात्मा पहचाने नहीं गए. शंकराचार्य जी कहते हैं कि किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी , जिसमें श्रुति के सिद्धान्त का ज्ञान होता है , ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़ बुद्धि अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता है , वह असत् ( जड़ प्रकृति ) में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है और निश्चय ही वह आत्मघाती है । ( विवेक चूड़ामणि ४ ) इसलिय अन्तर्मुख होकर जब परम तत्त्वको ढूँढोगे, तब आत्मा और परमात्माकी स्वतः पहचान हो जाएगी..यही जीवन की सार्थकता है और मानव जीवन का परम और एकमात्र लक्षय ...

प्रणाम जी

Friday, August 28, 2015

हे पापी जीव



हे पापी जीव ! तूं अब तक माया की नींद में क्यों सोता रहा है। इस प्रकार तूंने तो प्रमादवश बहुत सा समय व्यर्थ में ही खो दिया है। देखते-देखते तुम्हारे शरीर की आयु भी क्षीण होने लगी है। किन्तु ! तूं अभी भी सावचेत क्यों नहीं हो रहा है ?  हमारे प्राणाधार अक्षरातीत ने अपार दया करके माया का यह पंचभौतिक तन और तारतम ग्यान तुझे परदान  किया है। फिर भी रे मूर्ख ! आश्चर्य है कि तूं अभी भी उनकी दया के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं कर रहा है।  केवल मंत्र जाप को ही तारतम समझ कर तोता बना हुआ है ...जरा विचार तो कर ये जप तप आदि तो नवधा भक्ति है हे जीव ऐसे केसे तू उस पूर्णबृह्म को पाने के लिय अन्धा होकर विपरीत दिशा में भाग रहा है...
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प्रणाम जी
जब बैठे हक दिल में, तब रूह खड़ी हुई जान|
हक आए दिल अरस में, रूह जागे का एह निसान||

जब  परमात्मा  हमारे आत्म हृदय रूपी धाम में विराजमान हो जाते हैं, तब आत्मा जागृत हो गई है, ऐसा समझना चाहिए| इस प्रकार ब्रह्मात्माओं के हृदय में  परमात्मा का पदार्पण होना ही आत्म जागृति का लक्षण है|

प्रणाम जी

Thursday, August 27, 2015

मन

सुप्रभात जी

मन पर विजय प्राप्त करनेवाला पुरुष ही इस विश्व में बुद्धिमान् और् भाग्यवान है । वही सच्चा पुरुष है । जिसमें मन का कान पकड़ने का साहस नहीं, जो प्रयत्न तक नहीं करता वह मनुष्य कहलाने के योग्य ही नहीं । वह साधारण गधा नहीं अपितु मकरणी गधा है ।

वास्तव में तो मन के लिए उसकी अपनी सत्ता ही नहीं है । आपने ही इसे उपजाया है । यह आपका बालक है । आपने इसे लाड़ लड़ा-लड़ाकर उन्मत बना दिया है । बालक पर विवेकपूर्ण अंकुश हो तभी बालक सुधरते हैं । छोटे पेड़ की रक्षार्थ काँटों की बाड़ चाहिए । इसी प्रकार मन को भी खराब संगत से बचाने के लिए आपके द्वारा चौकीरुपी बाड़ होनी चाहिए ।                            
मन को देखें
    मन के चाल-चलन को सतत देखें । बुरी संगत में जाने लगे तो उसके पेट में ज्ञान का छुरा भोंक दें । चौकीदार जागता है तो चोर कभी चोरी नहीं कर सकता । आप सजाग रहेंगे तो मन भी बिल्कुल सीधा रहेगा ।
मन के मायाजाल से बचें

पहाड़ से चाहे कूदकर मर जाना पड़े तो मर् जाइये, समुद्र में डूब मरना पड़े तो डूब मरिये, अग्नि में भस्म होना पड़े तो भले ही भस्म हो जाइये और हाथी के पैरों तले रुँदना पड़े तो रुँद जाइये परन्तु इस मन के मायाजाल में मत फँसिए । मन तर्क लडाकर विषयरुपी विष    में घसीट लेता है । इसने युगों-युगों से और जन्मों-जन्मों से आपको भटकाया है । आत्मारुपी घर से बाहर खींचकर संसार की वीरान भूमि में भटकाया है । प्यारे ! अब तो जागो ! मन की मलिनता त्यागो । आत्मस्वरुप में जागो । साहस करो ।  पुरुषार्थ करके मन के साक्षी व स्वामी बन जाओ ।
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प्रणाम जी

कृष्ण कया है

कृष्ण शब्द के अनेक अर्थ हैं।
कृष् धातु का एक अर्थ है खेत जोतना,
दूसरा अर्थ है आकर्षित करना।
वे जो खींच लेते हैं, वे जो प्रत्येक
को अपनी ओरआकर्षित करते हैं, जो सम्पूर्ण
संसार के प्राण हैं- वही हैं कृष्ण।
कृष्ण का अर्थ है विश्व का प्राण,
उसकी आत्मा।
कृष्ण का तीसरा अर्थ है वह तत्व जो सबके 'मैं-
पन' में रहता है।
मैं हूँ, क्योंकि कृष्ण है।
मेरा अस्तित्व है, क्योंकि कृष्ण का अस्तित्व है।
अर्थात यदि कृष्ण नहीं हो तो मेरा अस्तित्व
भी नहीं होगा।
मेरा अस्तित्व पूर्णत: कृष्ण पर निर्भर करता है।
मेरा होना ही कृष्ण के होने का लक्षण या प्रमाण
है।
कृष्ण कहते हैं, 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते'
जो कुछ भी हम स्पर्श करते हैं, जो भी हम इस
विश्व में देखते हैं- वह सब कुछ कृष्ण का ही है।

इसलिय कृष्ण कोई वजूद का नाम नही है व्यापकता कृष्ण है.. परमधाम मे सत्य आकर्षण है परमधाम निज स्वरूप है आनंद का और आनंद ही बृह्म है.. आतमांये अंश है परमात्मा की ..और अंशी अपने अंश की और सदैव आकृषित रहती है जैसे मिट्टी का ढ़ेला कितना भी ऊपर फेंको पर वापस पृथ्वी की और ही आता है कयोंकी वो उसका अंश है इसी तरह ऐसे ही अग्नि उपर उठती है कयोंकी अंश है सुर्य का इसी इसी प्रकार हम आत्मांये आनंद अंग होने के कारण सदैव आनंद की और आकर्षित रहतीं हैं आनंद ही बृह्म है इसलिय हमारा परम आकर्षण परमात्मा है यानी वो हमारे सबसे बडे कृष्ण हैं. कयोंकी आकर्षण ही कृष्ण है परमात्मा परम आकर्षण हैं इसलिय वो परम कृष्ण हैं..आत्मांये धाम की और आकर्षित रहतीं है इसलिय परमधाम हमारा कृष्ण है..
कृष्ण को अगर किसी शरीर का नाम समझते हो तो तो तुरंत अपना मार्ग बदलें कयोंकी आप विपरित मार्ग पर हैं..संकिर्ता कृष्ण नही है व्यापकता कृष्ण है...

प्रणाम जी

Wednesday, August 26, 2015

ए झूठी रवेसें और हैं, और अर्स में और न्यामत।
ए किया निमूना अर्स जानने, पर बने ना तफावत।।

कालमाया के इस झूठे ब्रह्माण्ड की लीला अलग प्रकार की है तथा परमधाम में नूरी शोभा, सौन्दर्य, चेतनता, आदि की सम्पदा रूप लीला अलग प्रकार की है। यद्यपि इस ब्रह्माण्ड की रचना परमधाम को समझने के लिये ही की गयी है, किन्तु तारतम ज्ञान के न होने से परमधाम और जगत् में भेद करना विद्वानों के लिये सम्भव नहीं हो पाता..

प्रणाम जी
हे पापी जीव ! तूं अब तक माया की नींद में क्यों सोता रहा है। इस प्रकार तूंने तो प्रमादवश बहुत सा समय व्यर्थ में ही खो दिया है। देखते-देखते तुम्हारे शरीर की आयु भी क्षीण होने लगी है। किन्तु ! तूं अभी भी सावचेत क्यों नहीं हो रहा है ? 

Tuesday, August 25, 2015

खेल किस चीज का है ???

सुप्रभात जी

खेल किस चीज का है ????
केवल सब्दो पर जाओगे तो खेल दुःख का है पर बातूनी हकीकत केवल ब्रह्ममुनि जानते है की खेल दुःख का नही है बल्कि द्वैतवाद का है परम धाम में अद्वैतवाद का आनंद है वहां कभी हमने दुय्त के बारे में सुना भी नही था बस यही खेल परमात्मा अक्षरातीत को दिखाना था इसलिए हमे केवल नजर रूप में यहाँ भेजा है यहाँ के जीवो को अनंत काल से द्वैतवाद का अभ्यास है इसलिए वो यहाँ माया में मस्त रहते हैं पर हमारे लिए ये द्वैतवाद दुःख का कारण बना हुआ है सारी बुराईयाँ जैसे काम क्रोध लोभ मोह ओर अहंकार द्वैतवाद से ही है जरा गहराई से विचार करेंगे तो आपको खुद इसकी गहराई या बातूनी भेद का अनुभव हो जायेगा विषय गहन है पर शब्द सिमित हैं अतः इस विषय पर चिंतन करेंगे तो विषय अपनेआप शपष्ट हो जायगा और आपको अनुभव होगा की आपके हर दुख का कारण केवल द्वैतवाद है..
यहाँ परमात्मा का साक्षात्कार का सबसे उत्तम उपाए है की हम परमात्मा से अदुय्त भाव से सम्बन्ध स्थापित करें .. परमात्मा से अद्वैतभाव भाव कैसे स्थापित करें यह भी गहन व् आवश्यक विषय है इसपे भी कभी पर चर्चा करेंगे पर आज के लिए इतना ही ..

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प्रणाम जी
सरूप सुन्दर सनकूल सकोमल, रूह देख नैना खोल नूर जमाल ।
फेर फेर मेहेबूबजी आवत हिरदें, किया किनने तेरा कौल फैल ए हाल ।।

परमात्मा  का स्वरूप अति सुन्दर, प्रफुल्लित, अति कोमल, दिव्य प्रकाशयुक्त है, हे मेरी आत्मा ! तू आँखें खोलकर ऐसे तेजोमय स्वरूपको देख, ऐसे प्यारे प्रिय का स्मरण ह्रिदयमें वार-वार होता है, हे आत्मा ! तू विचार कर कि तेरे वचन, कर्म (चलन) और मनस्थितिको इतने महान किसने बनाया ..

प्रणाम जी
परमात्मा की प्राप्ति की समस्त साधानेयें यम,नियम,कर्म,योग,ज्ञान,व्रतादि प्राणहीन शव के समान है, यदि ध्यान रहित है...

प्रणाम जी

Monday, August 24, 2015

धर्म का अर्थ

धर्म का अर्थ

धर्म को जानने के लिए हमें धर्म का अर्थ जानना पड़ेगा |

मनु कहते है मनु स्मृति में

आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च समानमेतत्पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

अर्थ – अगर किसी मनुष्य में धार्मिक लक्षण नहीं है और उसकी गतिविधी केवल आहार ग्रहण करने, निंद्रा में,भविष्य के भय में अथवा संतान उत्पत्ति में लिप्त है, वह पशु के समान है क्योकि धर्म ही मनुष्य और पशु में भेद करता हैं|

दस लक्षण जो कि धार्मिक मनुष्यों में मिलते हैं

मनु स्मृति में मनु आगे कहते है कि निम्नलिखित गुण धार्मिक मनुष्यों में मिलते हैं|

धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥

धृति = प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्य न छोड़ना , अपने धर्म के निर्वाह के लिए
क्षमा = बिना बदले की भावना लिए किसी को भी क्षमा करने की
दमो =  मन को नियंत्रित करके मन का स्वामी बनना
अस्तेयं = किसी और के द्वारा स्वामित्व वाली वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग नहीं करना, यह चोरी का बहुत व्यापक अर्थ है , यहाँ अगर कोई व्यक्ति किसी और व्यक्ति की वस्तुओ या सेवाओ का उपभोग करने की सोचता भी है तो वह धर्म विरूद्ध आचरण कर रहा हैं
शौचं = विचार, शब्द और कार्य में पवित्रता
इन्द्रियनिग्रहः= इंद्रियों को नियंत्रित कर के स्वतंत्र होना
धी = विवेक जो कि मनुष्य को सही और गलत में अंतर बताता हैं
र्विद्या = भौतिक और अध्यात्मिक ज्ञान
सत्यं = जीवन के हर क्षेत्र में सत्य का पालन करना, यहाँ मनु यह भी कहते है कि सत्य को प्रमाणित करके ही उसे सत्य माना जाये
अक्रोधो = क्रोध का अभाव क्योंकि क्रोध ही आगे हिंसा का कारण होता हैं
यह दस गुण सभी मनुष्यों में मिलते है अन्यथा वह पशु समान है|
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प्रणाम जी
अठोत्तर सौ पख साखा सही , शाला है गोलोक ।

सतगुर चरण को क्षेत्र है , जहां जाए सब सोक ।।८०।।

१०८ पक्षों को ही शाखा कहा गया है । आज तक कोई भी १०८ की व्याख्या नहीं कर सका ।केवल तारतम ज्ञान से ही इसका भेद खुल सका है । १०८ से तात्पर्य अध्यात्म के १०८ पक्षों से है जो क्षर, अक्षर व अक्षरातीत में विस्तृत हैं, अतः उनसे तीनों का संक्षिप्त ज्ञान हो जाता है ।

संसार के ८१ पक्ष = ९ प्रकार की भक्ति (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन, पाद सेवन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन) x ३ स्तर (प्रवाह, मर्यादा, पुष्ट) x ३ गुण (सत्, रज, तम) ।

बेहद के २ पक्ष - पहला पक्ष वल्लभाचार्य जी का है, जिन्होंने निराकार को पार करके अखण्ड गोलोक (योगमाया) का वर्णन किया । दूसरा पक्ष इस ब्रह्माण्ड में अवतरित अक्षर ब्रह्म की पांच वासनाओं (सदाशिव जी, विष्णु जी, सनकादि चार ऋषि, कबीर जी, सुकदेव ऋषि) का है, जिन्होंने अखण्ड योगमाया तक का ज्ञान दिया ।

अन्तिम २५ पक्ष अखण्ड योगमाया से भी परे दिव्य परमधाम के हैं,

अखण्ड गोलोक को शाला (आंगन) माना गया है । यहां गोलोक का तात्पर्य इस नश्वर जगत के किसी स्थान से नहीं है, अपितु वह तो क्षर ब्रह्माण्ड से परे अखण्ड योगमाया के ब्रह्माण्ड में है । माहेश्वर तन्त्र (५०/६६) में भी कहा गया है कि गोलोक कूटस्थ अक्षर ब्रह्म का साक्षात् हृदय है, जहां पुरुषोत्तम (अक्षरातीत) के द्वारा अखण्ड किया हुआ कृष्ण तन गोपियों के साथ क्रीड़ा करता है । सच्चिदानन्द परब्रह्म की आनन्द स्वरूपा श्री श्यामा जी के चरण कमल ही हमारा क्षेत्र हैं, जिनके दर्शन के आनन्द से सभी सांसारिक ताप मिट जाते हैं ..

प्रणाम जी

Sunday, August 23, 2015

सुप्रभात जी

हे जीव ! यदि तुम इस बार भवसागर से पार हो जाओगे तो दुबारा मानव तन में नहीं आना पड़ेगा। तुम सावधान होकर इस बात पर विचार करो। यद्यपि भवसागर से पार होना कठिन है, किन्तु पार हो जाने पर अनन्त सुख मिलेंगे। परमात्मा से अन्नय प्रेम रूपी नाव बना कर आसानी से भवसागर को पार किया जा सकता है..
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प्रणाम जी
सेवन है पुरुषोत्तम , गोत्र चिदानन्द जान ।

परम किशोरी इष्ट है , पतिव्रता साधन मान ।।७८।।

सेवन अर्थात जीवों के लिय भक्ति, पर बृह्म आत्माओं के लिय इसका अर्थ कहीं गहन है सेवन अर्थात ग्रहण करना हम जो सेवन करते हैं या जो ग्रहण करते हैं उसी से हमें आचार विचार व्यवहार व उर्जा मिलती है इसी प्रकार बृह्मआत्मांये केवल पूरणबृह्म को सेवती है अर्थात ग्रहण करतीं है तो उनका आचार विचार व्यवहार आदी सब ही बृह्ममय हो जाता है ..इसलिय मेरे धाम की आत्मांये क्षर व अक्षर से परे एकमात्र उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम) अक्षरातीत को ही सेवती हैं ।ब्रह्मआत्मों में किसी सांसारिक पुरुष से गोत्र नहीं माना जाता, अपितु परब्रह्म अक्षरातीत व उनकी आनन्द अंग (चिदानन्द युगल स्वरूप) को ही गोत्र माना गया है ।

परब्रह्म अक्षरातीत की आनन्द अंग श्री श्यामा जी (परम किशोरी), जिन्हें वेद में युवा स्वरूप वाला कहा गया है, को ही ब्रह्मसृष्टियों का इष्ट माना गया है क्योंकि वे सब उन्ही की अंग हैं । भक्ति का साधन नवधा भक्ति से परे अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति है अर्थात् आत्माएं अक्षरातीत को अपना पति (प्रियतम) मानकर अनन्य प्रेम के मार्ग पर चलती हैं । परमधाम की पवित्र लीला में इन लौकिक (पति-पत्नी) सम्बन्धों का अभाव है परन्तु संसार में अनन्य प्रेम को दर्शाने का यही एकमात्र साधन है । वेद में भी आत्मा को पत्नी कहा गया है ...

प्रणाम जी

Saturday, August 22, 2015

ब्रह्मज्ञान की बातें

सुप्रभात जी

जो लोग ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं, अक्सर वे तोते की तरह एक ही रट लगाये रहते हैं किड— जीवन का कोई अर्थ नहीं है... संसार में तो दुख ही दुख है... जीवन तो विकारों से भरा पड़ा है, आदि आदि। क्योंकि अधिकतर  तो संसार को छोड़ने वाले ही ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं, इसलिये हमें लगता है कि  ब्रह्मज्ञान किसी प्रकार के त्याग पर आधारित है। इसलिये ब्रह्मज्ञान से हमें भय लगने लगता है।
लेकिन यह भय निराधार है। हम आप को यह बताना चाहते हैं कि ब्रह्मज्ञान कोई त्याग नहीं है — यह तो एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। ब्रह्मज्ञान आपको संपूर्ण सुख देता है — भौतिक भी और अध्यात्मिक भी। ब्रह्म का तो अर्थ ही आनन्द है।
ब्रह्मज्ञान कोई हौव्वा नहीं है। यह तो एक व्यवहारिक सूत्र है जो हमारी उच्चतम सफलता का मार्ग खोलता है।
ब्रह्म के अर्थ को समझने के लिये हम आप को ले चलते हैं तैत्तिरीय उपनिषद की एक प्रसिद्ध कथा की ओर। भृगुवल्ली नाम के अध्याय में चर्चित यह कथा है तो थोड़ी लम्बी, पर हम आपके समक्ष उसक संक्षिप्त भाषान्तर (version) प्रस्तुत करते हैं।

प्रसिद्ध ऋषि भृगु के मन में जिज्ञासा उठी कि ब्रह्म को जाना जाये — ब्रह्म को समझा जाये। उनके पिता वरुण जी वेदों को जानने वाले ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष थे। भृगुजी ने अपने ब्रह्मज्ञानी पिता वरुण जी से प्रार्थना की —
“भगवन, मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ, अतेव आप कृपा कर के मुझे ब्रह्म का अर्थ समझाइये।”
तब वरुण जी ने भृगु से कहा, “तातन्न अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी —  ये सब ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं। इन सब में ब्रह्म की सत्ता स्फ-रित हो रही है।” फिर साथ में यह भी बताया कि सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी जिस से उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीते हैं, तथा प्रयाण करते हुए जिस में विलीन हो जाते हैं, वही ब्रह्म है।
भृगु जी कुछ समझ नहीं पाये। उन्होंने वरुण जी से विस्तार पूर्वक समझाने की विनती की।
“मेरे समझाने से कुछ नहीं होगा”, वरुण जी बोले, “यह तुम्हें स्वयं ही समझना होगा। जाओ, तपस्या करो और स्वयं जानो इसका अर्थ।”
भृगु जी ने निष्ठापूर्वक पिता के कथन पर विचार किया, मनन किया। यही उनका तप था।
मनन के बाद भृगु जी इस निश्चय पर पहुँचे कि अन्न ही ब्रह्म है। उन्हें अन्न में वे सारे लक्षण नजर आये जो पिता जी ने बताये थे —
समस्त प्राणी अन्न से ही (अन्न के परिणार्मभूत वीर्य से) उत्पन्न होते हैं, अन्न खा कर ही जीवित रहते हैं और मरणोपरान्त अन्न देने वाली पृथ्वी में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।
लेकिन वरुण जी ने भृगु महाराज के इस निश्चय का समर्थन नहीं किया। वे जानते थे कि पुत्र ने ब्रह्म के स्थूल रूप को ही समझा है। ब्रह्म के वास्तविक रूप तक उसकी बुद्धि अभी हीं पहुँची है।
भृगु जी ने फिर प्रार्थना की, “भगवन्! यदि मैं ठीक नहीं समझा तो आप ही मुझे ब्रह्मतत्त्व समझाइये।” लेकिन वरुण जी नहीं माने। उन्होंने कहा, “तू तप के द्वारा ब्रह्म को समझने की कोशिश कर। तेरा तप ब्रह्म का बोध कराने में सर्वथा समर्थ है।”
पिता की आज्ञा पाकर भृगु जी ने फिर तप शुरू किया। इस बार उन्होंने निश्चय किया —
प्राण ही ब्रह्म है।
लेकिन इस बार भी वरुण जी ने न तो उनके निश्चय का समर्थन किया और न ही उसे ब्रह्म का अर्थ समझाया।
“तुम्हारा तप ही ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है।” — ऐसा कह कर उन्होंने भृगु जी को फिर से तपस्या करने के लिए कहा।
अगली दो बार भृगु जी के निश्चय थे —
मन ही ब्रह्म है।
विज्ञान ही ब्रह्म है।
लेकिन वरुण जी ने इन दोनों का भी समर्थन नहीं किया। उन्होंने सोचा — इस बार बेटा ब्रह्म के निकट आ गया है। उसका विचार स्थूल और सूक्ष्म दोनों जड़ तत्त्वों से ऊपर उठ कर चेतन तक तो पहुँच गया है, किन्तु ब्रह्म का स्वरूप तो इससे भी विलक्षण है। इसे अभी और तपस्या की आवश्यकता है।
जब इस बार भी भृगु जी के निश्चय को समर्थन नहीं मिला तो वे पुनः तप करने चले गये।
पाँचवीं बार भृगु जी ने अन्तिम रूप से निश्चर्यपूर्वक जाना—
आनन्द ही ब्रह्म है।
सचमुच में आनन्द से ही सारे प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनन्द के सहारे ही वे जीते हैं, तथा इस लोक से प्रयाण करते हुए अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाते हैं।
इस प्रकार जान लेने पर भृगु जी को ब्रह्म का पूरा ज्ञान हो गया। तब से भृगु महाराज ब्रह्मज्ञानी कहलाने लगे।
आनन्द ही ब्रह्म है — इस बोध में ब्रह्मज्ञान है।
यहाँ पर एक बात को ठीक से समझना है — ब्रह्म और आनन्द एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। ब्रह्म आनन्द से अलग नहीं है, आनन्द ब्रह्म से अलग नहीं है। ऐसा नहीं है कि ब्रह्म में आनन्द है, और ऐसा भी नहीं है कि आनन्द में ब्रह्म है। तथ्य यह है कि आनन्द ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आनन्द है...
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प्रणाम जी
श्री युगल किशोर को जाप है, मन्त्र तारतम सोए ।

ब्रह्मविद्या देवी सही , पुरी नौतन मम जोए ।।७९।।

यहाँ जाप का अर्थ जीव भाव से नही समझा जा सकता है क्योंकि जीवो का जाप केवल इन्द्रियों तक ही होता है जबकि ब्रह्मसृष्टिया आत्मिक आधार पर साधना मार्ग अपनाती है इसलिए यहाँ जाप का अर्थ जपना नही अपितु पुनरावृति है पुनरावृति बार बार युगल स्वरुप को हृदये में अंकित करने की यही ब्रह्मसृष्टियो का जाप है ..क्योंकि यहाँ जीवो को पद्धति बताई गयी है इसलिए उनकी भाषा का प्रयोग किया गया है ...
इसलिए अखण्ड व आनन्दमयी परमधाम में विराजमान युगल स्वरूप (परब्रह्म व उनकी आनन्द अंग) को ही जपा जाता है । वह लीला रूप में दो हैं परन्तु असल स्वरूप तो एक ही है । हमारा मन्त्र तारतम है ।( यहाँ ये जानना भी आवश्यक है की मंत्र क्या है तारतम जीवो के लिए मंत्र है जिस से उनकी मुक्ति होनी है जबकि ब्रह्मात्मावो के लिए ये एक मार्ग है जिसपे चलकर वे अपने घर पहुचेंगी इसलिए तारतम को मंत्र केवल जीवों को समझने के भाव  में कहा गया है ).. एकमात्र तारतम ज्ञान से ही क्षर व अक्षर से परे अक्षरातीत परब्रह्म के धाम, स्वरूप व लीला की पहचान होती है । इसे संसार में प्रकट करने वाले स्वयं अक्षरातीत हैं ।

देवी वह हैं जो सांसारिक कष्टों को दूर करे तथा माया के अज्ञान से छुड़ाकर अखण्ड मुक्ति प्रदान करे । ब्रह्मविद्या (पराविद्या) अर्थात  पार के  ज्ञान को ही देवी का स्वरूप माना गया है ।  श्री कुलजम स्वरूप वाणी ही परब्रह्म का ज्ञान देती है, अतः उसे ब्रह्मविद्या कहा गया है । नवतनपुरी (जामनगर, गुजरात) में सर्वप्रथम तारतम ज्ञान का प्रकटन प्रारम्भ हुआ । अतः नवतनपुरी आदरणीय पुरी है ...

प्रणाम जी

Friday, August 21, 2015

अध्यात्मिकता का अर्थ

कुछ लोग अध्यात्म का गलत अर्थ लेलेते हैं..


अध्यात्मिकता का अर्थ त्याग नहीं है। अध्यात्मिकता का अर्थ संसार से विमुखता भी नहीं है। अध्यात्मिकता तो हमारी वह दृष्टि है जिस से हम यह देख लेते हैं कि हमारी धन-दौलत और हमारे घर-परिवार के पार भी बहुत कुछ है। इस का अर्थ यह नहीं कि यह बोध उसी को हो सकता है जो संसार का त्याग करता है, या संसार को तुच्छ और मिथ्या कहने लगता है।
अध्यात्मिक होने का अर्थ साधु-महात्मा हो जाने से नहीं है। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा के साथ एकात्मकता बनाकर जीने की कला सीख लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — इस अस्तित्त्व के साथ सहयोग का सम्बन्ध बना लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा को अपने जीवन में घोल लेना।
अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — सुख की अनुभूति को बनाये रखना। अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — ब्रह्म में स्थित हो जाना।
एक अध्यात्मिक व्यक्ति अपने हर सुख को परम सुख बना देता है। अध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि परम सुख कहीं आसमान से नहीं टपकता। वह जानता है कि आनन्द कहीं बाहर से नहीं आता।
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रूह अल्ला महमद इमाम , मसरक आए जब ।

सूरज गुलबा आखिरी , मगरब ऊग्या तब ॥ (श्री कुल्जम स्वरूप- खु. १५/३८)

जब रूह अल्लाह (श्री श्यामा जी), रसूल साहब (श्री अक्षर ब्रह्म) और इमाम महदी (अक्षरातीत) हिन्दुस्तान  में ज़ाहिर हुए, तो परमधाम का ज्ञान रूपी सूर्य पूर्व दिशा (हिन्दुस्तान) में उगा हुआ माना गया और अरब की धरती को पश्चिम की दिशा माना गया । वहाँ नूरी ज्ञान का झण्डा न होने से अज्ञानता का साम्राज्य छा गया । इसे ही पश्चिम में उगने वाला बिना रोशनी का सूर्य कहा गया है...

प्रणाम जी

पूजे पाहन पानी

पूजे पाहन पानी

साधो दुनिया दीवानी, पूजे पाहन पानी।
गढ़ मूरत मंदिर में थापी, निव निव करत सलामी।
चन्दन फूल अछत सिव ऊपर बकरा भेट भवानी।
छप्पन भोग लगे ठाकुर को पावत चेतन न प्रानी।
धाय-धाय तीरथ को ध्यावे, साध संग नहिं मानी।
ताते पड़े करम बस फन्दे भरमें चारों खानी।
बिन सत्संग सार नहिं पावै फिर-फिर भरम भुलानी।

Thursday, August 20, 2015

सुप्रभात जी

 हे सन्त जनों ! जिस परमात्मा ने आकाश मण्डल में इस ब्रह्माण्ड रूपी मण्डप का निर्माण किया है, जिसमें कोई भी दीवाल, स्तम्भ (खंभा) या बन्धन नहीं है, उसे आप निराकार क्यों कहते हैं ? आप विचार कीजिए कि इस प्रकार की अद्वितीय रचना दूसरा कौन कर सकता है या किस प्रकार से कर सकता है ?   जिस ब्रह्म के द्वारा गहरे सागरों और ऊँचे पर्वतों का निर्माण हुआ, जिसकी सत्ता में सूर्य, चन्द्रमा और असंख्य नक्षत्र भ्रमण कर रहे हैं, दिन-रात्रि तथा ऋतुओं का चक्र परिवर्तित होता रहता है, वनस्पतियों में रंगों का परिवर्तन होता है, वह स्वयं कैसा है ? ऐसा केवल इसी ब्रह्माण्ड में ही नहीं, बल्कि अनन्त ब्रह्माण्डों में हो रहा है।

प्रणाम जी
बड़ा कहया इन माएनों , करी रोसन आकास जिमी ।

सौ गज कहे सौ तरफों के , दौड़े खाहिस दिन आदमी ॥ (श्री कुल्जम स्वरूप- मा. सा. ११/२४)

रात्रि को माजूज कहते हैं । माजूज को एक गज का लम्बा इसलिए कहते हैं क्योंकि रात्रि में सो जाने पर मन की वृत्तियां एक ही तरफ हो जाती हैं । जीवधारियों का यह पंचभौतिक शरीर ही अष्टधातु (रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र और ओज) की दीवार है । प्रातः, दोपहर और सायंकाल ये तीन फौजे हैं । आजूज-माजूज निरन्तर सबकी आयु का हरण कर रहे हैं । जब ख़ुदा के हुक्म से महाप्रलय होगी तो इस दुनिया में कुछ भी नहीं बचेगा अर्थात् आजूज-माजूज रूपी काल के द्वारा सांसारिक प्राणियों की उम्र रूपी दीवार को तोड़ दिया जायेगा 

Wednesday, August 19, 2015

वैराग्य शतक

जीवन जल की उतुंग तरंगों के समान चंचल है । यौवन का सौन्दर्य भी कुछ ही दिनों का मेहमान है । धन-सम्पत्ति हवाई महल के समान है । सुख-भोग वर्षाकालीन विद्युत की चमक के समान क्षण भर की झलक मात्र है । प्रेमिकाओं का आलिंगन भी स्थायी नहीं है । अतः संसार के भय रूपी सागर से पार होने के लिए एकमात्र सच्चिदानन्द परब्रह्म में ही ध्यान लगाओ ।

ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाला मनुष्य ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवगणों को भी तिनके के समान तुच्छ समझता है । उस परमानन्द के समक्ष उसे तीनो लोकों का राज्य भी फीका प्रतीत होता है । वास्तविक और विशुद्ध आनन्द तो उसी में है । वह ब्रह्मानन्द तो निरन्तर बढ़ता ही जाता है । उसको छोड़कर और सभी सुख तो क्षणिक ही हैं । अतः सभी को उसी सच्चिदानन्द परब्रह्म में मन लगाना चाहिए ।" ( वैराग्य शतक ३७-४० )

नूर अकल इस्राफील , ले पोहोंच्या पार बेहद ।

जिन कोई हिसबो खेल में , याको रंचक न लगे सब्द ॥ (श्री कुल्जम स्वरूप-सनंध ३८/९४)

क़ियामत के समय इस्राफील फरिश्ते के भी अवतरण का वर्णन है, जिसके माध्यम से परमधाम का वह अनुपम ज्ञान अवतरित होना है जिससे सारी दुनिया इस दुःखमय भवसागर से पार हो जायेगी तथा अज्ञानता के बड़े-बड़े पहाड़ (आचार्य, मौलवी-मुल्ला व पादरी) भी नष्ट हो जायेंगे अर्थात् शक्तिहीन हो जायेंगे । तफ़्सीर-ए-हुसैनी भाग २ पृष्ठ ४१ पर लिखा है कि क़ियामत के दिन इस्राफील सूर फूंकेगा तथा पहाड़ों को जड़ से उखाड़ देगा । सब पैरवी करेंगे, मोमिन तो जल्दी के साथ और काफ़िर देर के साथ ।

तो मुसाफ मगज असराफीलें , किए जाहेर कई विध गाए ।

एक सूरें दुनी फना करी , किए दूजे सूरे कायम उठाए ॥ (श्री कुल्जम स्वरूप-मा. सा. १२/२५)

अर्थात् जाग्रत बुद्धि के फरिश्ते इस्राफील ने अल्लाह स्वरूप श्री प्राणनाथ जी की आज्ञा से क़ुरआन के बातूनी भेदों को स्पष्ट किया । उसने अपने ज्ञान के एक सूर से दुनिया की अज्ञानता को समाप्त कर दिया तथा दूसरे सूर से पूरे ब्रह्माण्ड को अखण्ड मुक्ति की बख्शीश दी ।

इमाम महदी श्री प्राणनाथ जी की कृपा से जाग्रत बुद्धि की तारतम वाणी (श्री कुल्जम स्वरूप) का अवतरित होना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इस्राफील ने आकर सूर फूंक दिया है । श्री कुल्जम स्वरूप वाणी के अवतरण की लीला श्री प्राणनाथ जी के द्वारा प्रकट रूप में पाँचवे दिन अर्थात् सम्वत् १७१२ से १७५१ के बीच हुई । उसके बाद से मोमिनों की लीला का यह छठा दिन लगभग तीन सौ वर्षों से चल रहा है । छठे दिन की लीला पूरी हो जाने पर इस्राफील फरिश्ता दूसरी बार सूर फूंकेगा जिससे सारे ब्रह्माण्ड को योगमाया (बहिश्तों) में मुक्ति मिलेगी..
(ज़िबरील और इस्राफील दोनों ही अक्षर ब्रह्म के फरिश्ते हैं । हिन्दू धर्मग्रन्थों में जिसे अक्षर ब्रह्म की जाग्रत बुद्धि कहा जाता है, उसे ही क़ुरआन में इस्राफील कहा गया है तथा जिसे जोश का फरिश्ता कहा जाता है, उसे क़ुरआन में ज़िबरील कहा गया है )

प्रणांम जी

Tuesday, August 18, 2015

विरह-प्रेम

सुप्रभात जी

विरह-प्रेम का मार्ग नवधा भक्ति एवं योग साधना से भिन्न है। यदि पल भर के लिये भी विरह-प्रेम की गहन अवस्था प्राप्त हो जाये, तो आत्मा हद-बेहद को पारकर मूल मिलावे में विराजमान युगल स्वरूप तथा अपनी परात्म का साक्षात्कार कर लेती है। 'पंथ होवे कोट कलप, प्रेम पोहोंचावें मिने पलक।’ परिकरमा १/५३..

प्रणाम जी
प्रेमको ब्रह्मका ही स्वरूप माना जाता है । वास्तवमें ब्रह्मधाममें ही प्रेम है और ब्रह्मधामकी लीलाओंके द्वारा ही वह प्रकट होता है । पूर्णब्रह्म परमात्माने जब अपनी अन्तरंग लीला(ब्रह्मधामकी लीला)को इस नश्वर जगतमें प्रकट किया तब यह प्रेम भी इस जगतमें प्रकट हुआ है । इसीलिए महामति कहते हैं, इस जगतमें प्रेम लेशमात्र भी नहीं था उसको सर्वप्रथम ब्रह्मात्माओंने ही प्रकट किया । व्रजकी गोपियाँ ब्रह्मात्माएँ थीं । इसलिय उनका ही उदाहरण दिया जाता है ।

जो आत्मा अक्षरातीत पूर्णब्रह्म परमात्माके प्रति समर्पित होती है उसके हृदयसे प्रेमका प्रवाह प्रवाहित होने लगता है । ऐसे प्रेम रसमें डुबी हुई आत्माएँ अपने प्रेमको शब्दके द्वारा व्यक्त नहीं कर सकतीं । उनके अंग प्रत्यङ्गसे प्रेम प्रकट होता है इसलिए उनकी वाणीके साथ-साथ सारी चेष्टायें प्रेमसे ओतप्रोत होती हैं ।

प्रेमलक्षणा भक्तिकी दशाकी पराकाष्टाका वर्णन ..

रस मगन भई सो क्या गावे।
विचली बुध मन चित मनुआ, ताए सबद सीधा मुख क्यों आवे ।।

विचले नैन श्रवन मुख रसना, विचले गुन पख इन्द्री अंग ।
विचली भांत गई गत प्रकृत, विचल्यो संग भई और रंग ।।

विचली दिसा अवस्था चारों, विचली सुध ना रही सरीर ।
विचल्यो मोह अहंकार मूलथें, नैनों नींद न आवे नीर ।।

विचल गई गम वार पारकी, और अंग न कछुए सांन ।
पिया रसमें यों भई महामत, प्रेम मगन क्यों करसी गांन ।।

प्रणाम जी

Monday, August 17, 2015





(श्री प्राणनाथ वाणी पर आधारित)

तुम्हारी नाव पुरानी है और बोझ भारी है। जहाज को डुबाने वाली हवा बह रही है। हे मल्लाह! तूं सावधानी से पतवार ( चप्पू ) चला। तूं नींद छोड़कर क्यों नहीं उठता।
भाव---------

हे जीव ! तुम्हारे द्वारा धारण किये गये शरीर की उम्र ज्यादा हो गयी है। लौकिक कार्यों का उत्तरदायित्व भी बहुत अधिक है। विषय-विकारों की ऐसी तेज हवा बह रही है जो अपने झोंकों से मन को अशान्त बना रही है। ऐसी अवस्था में तूं प्रियतम परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जा। समर्पण ( पतवार ) के सहारे ही तूं परब्रह्म की कृपा का पात्र बनेगा और भवसागर से पार होगा। तूं शीघ्र-अति शीघ्र अपनी अज्ञानता की नींद को छोड़कर प्रियतम के प्रेम में दौड़ लगा।

प्रणाम जी

बहानें त्यागें

(श्री प्राणनाथ वाणी पर आधारित)

संसार के लोग सारे परिवार का बोझ अपने शरीर पर लेकर माया के कामों में लगे रहते हैं और इसी में अपने शरीर को जर्जर कर देते हैं । स्वयं तो परमात्मा का भजन करते नहीं, किन्तु कर्मफल के कारण जब कष्ट मिलता है तो परमात्मा को ही दोषी ठहरा देते हैं । भजन न करने के बहाने बनाते हुए कहते हैं कि हम क्या करें, बिना परमात्मा की दया के तो सत्संग भी नहीं मिलता, उसके बिना हम भजन कैसे करें ?

सब बहाने त्याग कर परमात्मा को पाने का प्रयास करना ही परम लक्ष्य है...

प्रणाम जी

धर्म

पूर्ण वास्तविकता यह है कि वर्तमान विश्व में प्रचलित सभी धर्मों को तो पंथ या सम्प्रदाय ही कहा जा सकता है क्योंकि धर्म तो एक ही है - सत्य । सत्य धर्म ही एकमात्र धर्म है जो एक परब्रह्म परमात्मा का मार्ग दिखाता है । सभी पंथ (जिन्हे धर्म कहा जाता है उदाहरणार्थ हिन्दू, मुस्लिम , ईसाई मत , आदि) तो उसी सत्य धर्म की शाखाएँ हैं , जो विभिन्न भाषाओं में उस एक सच्चिदानन्द परमात्मा का मार्ग दिखाते हैं । 

Sunday, August 16, 2015

शरीर रचना और सदउपयोग


सर्वप्रथम हम इन्द्रियाँ और उनके कार्यों पर विचार करते हैं । संस्कृत भाषामें इन्द्रियोंको करण कहा है जिसका अर्थ होता है साधन । करण अर्थात् इन्द्रियाँ मुख्यतया दो प्रकारकी होती हैं । एक बाहरकी इन्द्रियाँ अर्थात् बाह्यकरण दूसरी अन्तरकी इन्द्रियाँ अर्थात् अन्तःकरण । बाहरकी इन्द्रियाँ भी दो प्रकारकी होती हैं । उनमेंसे कुछ इन्द्रियोंसे ज्ञानन प्राप्त होता है और कुछ इन्द्रियोंके द्वारा कर्म किए जाते हैं । जिनके द्वारा ज्ञानन प्राप्त होता हैं उनको ज्ञाननेन्द्रियाँ और जिनके द्वारा कर्म किए जाते हैं उनको कर्मेन्द्रियाँ कहा जाता है । ज्ञाननेन्द्रियाँ भी पाँच प्रकारकी होती हैं और कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच प्रकारकी होती हैं । इस प्रकार बाहरकी इन्द्रियाँ कुल दस प्रकारकी होती हैं ।

जिनके द्वारा ज्ञानन प्राप्त होता है वे पाँच ज्ञाननेन्द्रियाँ इस प्रकार हैं,
१. श्रोत्र(कान)के द्वारा श्रवण किया जाता है अर्थात् शब्दका ज्ञानन होता है ।
२. चक्षु(नेत्र)के द्वारा देखा जाता है अर्थात् रूप रंगका ज्ञानन होता है ।
३. घ्राण(नासिका)के द्वारा सूँघा जाता है अर्थात् गन्धका ज्ञानन होता है ।
४. त्वचा(चमड.ी)के द्वारा स्पर्श किया जाता है अर्थात् शीत, उष्ण, कठोर कोमल आदिका ज्ञानन होता है ।
५. रसना(जीभ)के द्वारा रसका आस्वादन किया जाता है अर्थात् स्वादका ज्ञानन प्राप्त होता है ।
इस प्रकार इन ज्ञाननेन्द्रियोंके द्वारा बाह्य जगतका ज्ञानन प्राप्त होता है ।

जिनके द्वारा कर्म किए जाते हैं उन पाँच कर्मन्द्रियोंमें
१. वाक्(वाणी)के द्वारा बोला जाता है अर्थात् शाब्दिक अभिव्यक्ति होती है,
२. पाणि(हाथ)के द्वारा विभिन्न प्रकारके कार्य किए जाते हैं,
३. पाद(चरण)के द्वारा चलनेका कार्य होता हैं,
४. पायु(गुदा)के द्वारा मलत्याग होता है और
५. उपस्थ(जननेन्द्रिय)के द्वारा मूत्रत्याग किया जाता है ।

उपर्युक्त दस इन्द्रियाँ बाह्यकरण अर्थात् बाह्य साधन हैं । इनके अतिरिक्त अन्दरकी इन्द्रियाँ अन्तःकरण अर्थात् अन्तरके साधन हैं । वे चार प्रकारके हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । ये आन्तरिक साधन बाह्य साधनोंसे सूक्ष्म होते हैं । इन चारोंको एक ही शब्दमें सत्त्व कहा है । एक ही सत्त्वकी भी चार प्रकारकी भिन्न भिन्न कार्यशक्तिके कारण इसके भिन्न-भिन्न चार नाम पड.े हैं । इनमें मनन करनेकी शक्तिके कारण मन, निश्चय करनेकी शक्तिके कारण बुद्धि, चिन्तन करनेकी शक्तिके कारण चित्त एवं अभिमान करनेकी शक्तिके कारण अहंकार इस प्रकार नामाभिधान हुआ है । कुछ शास्त्रोंमें मन और बुद्धिमें क्रमशः चित्त और अहंकारका समावेश होना बतया गया है । आन्तरिक साधन होनेके कारण इनको अन्तःकरण एवं सूक्ष्म और प्रबल शक्तिके कारण सत्त्व कहा गया है ।

शरीरमें बाहरसे दिखनेवाली एवं अन्दर होनेके कारण न दिखनेवाली मात्र अनुभव किए जानेवाली ये बाह्य एवं अन्तरकी इन्द्रियाँ सभी करण अर्थात् साधन हैं। इन सभीको साधनके रूपमें जाननेके पश्चात् हमें यह जिज्ञानसा होनी चाहिए कि वास्तवमेंये साधन किसके हैं, इन साधनोंका उपयोग कौन करता है ? यदि हम यह जानना चाहेंगे तो हमारी खोज बढ.ेगी और हम मनन, चिन्तन करने लगेंगे । तब हमें ज्ञानन होंगा कि ये सभी साधन आत्माके लिए हैं । हम स्वयं आत्मा हैं । इसलिए ये सभी साधन हमारे लिए हैं । परमात्माने हमें शरीर प्रदान किया तो इसे इन सभी साधनोंसे सुसज्जित कर प्रदान किया है । वास्तवमें यह शरीर ही एक साधन है । विभिन्न प्रकारके अंग प्रत्यंगोंसे युक्त इस स्थूल शरीरको उपर्युक्त सूक्ष्म साधनोंके द्वारा सुसज्जित किया गया है ।

इतना जाननेके पश्चात् एक और जिज्ञानसा प्रकट होनी चाहिए । वह इस प्रकार है, परमात्माने हमें ऐसा साधनसम्पन्न शरीर क्यों प्रदान किया है ? यह जिज्ञानसा उत्पन्न होते ही हम उसकी खोज करना आरम्भ करेंगे । यही खोज हमें स्वयंकी पहचान करवायेगी । तत्पश्चात् परमात्माकी पहचान होगी । यह मनुष्य शरीर परमात्माको प्राप्त करनेके लिए दिया गया साधन है । इतना जानने पर हमें यह भी विचार करना चाहिए कि जिसके लिए यह शरीर प्राप्त हुआ हैं, क्या वह कार्य हम कर रहे ? यदि कर रहे हैं तो ठीक है, इस कार्यको और आगे बढायें । यदि नहीं कर रहे हैं तो हमें यह कार्य कर लेना चाहिए अन्यथा हम स्वयंको भी धोखा दे रहे हैं और परमात्माको भी धोखा दे रहे हैं 

वाणी

खोल आंखें रूह नूर की, क्यों नूर न देखे बेर बेर।
क्यों न आवे बीच नूर के, ज्यों नूर लेवे तोहे घेर।।

हे मेरी आत्मा ! अब तू अपनी मनोहर आंखों को खोल, तू परमधाम की इस नूरमयी शोभा को बार-बार क्यों नहीं देख रही है ? तू मायावी जगत को छोड़कर इस नूरी धाम में क्यों नहीं आ जाती, जहाँ तेरे चारों ओर नूर ही नूर घिरा (फैला) हुआ है ..

प्रणाम जी

Saturday, August 15, 2015

कभी मन को ऐसे विचार भी दें...

सुप्रभात जी
कभी मन को ऐसे विचार भी दें...

जिस पद में विश्राम पाने से फिर शोक न हो और जिसके पाने से फिर बन्धन न रहे ऐसा पद मुझको कब प्राप्त होगा?
कब मैं मन के मनन भाव को त्यागकर विश्रान्तिमान् हूँगा-जैसे मेघ भ्रमने को त्यागकर पहाड़ के शिखर में विश्रान्ति करता है-और कब चित्त की दृश्यरूप वासना मिटेगी जैसे तरंग से रहित समुद्र शान्तमान् होता है तैसे ही कब मैं मन के संकल्प विकल्प से रहित शान्तिमान् हूँगा?

तृष्णारूपी नदी को बोधरूपी बेड़ी और संत् संग और सत्‌शास्त्ररूपी मल्लाह से कब तरूँगा, चित्तरूपी हाथी जो अभिमानरूपी हाथी जो अभिमानरूपी मद से उन्मत्त है उसको विवेकरूपी अंकुश से कब मारूँगा और ज्ञानरूपी सूर्य से अज्ञानरूपी अन्धकार कब नष्ट करूँगा?

हे देव! सब आरम्भों को त्यागकर मैं अलेप और अकर्ता कब होऊँगा? जैसे जल में कमल अलेप रहता है तैसे ही मुझको कर्म कब स्पर्श न करेंगे?

मेरा परमार्थरूपी भास्वर वपु कब उदय होगा जिससे मैं जगत् की गति को देखकर हँसूँगा हृदय में सन्तोष पाऊँगा और पूर्णबोध विराट् आत्मा की नाईं होऊँगा?

वह समय कब होगा कि मुझ जन्मों के अन्धे को ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होगा, जिससे मैं परमबोध पद को देखूँगा?

वह समय कब होगा जब मेरा चित्तरूपी मेघ वासना रूपी वायु से रहित आत्मरूपी सुमेरु पर्वत में स्थित होकर शान्तमान् होगा?

अज्ञान दशा कब जावेगी और ज्ञानदशा कब प्राप्त होगी? अब वह समय कब होगा कि मन और काया और प्रकृति को देख कर हँसूँगा?

वह समय कब होगा जब जगत् के कर्मों को बालक की चेष्टावत् मिथ्या जानूँगा और जगत् मुझको सुषुप्ति की नाईं हो जावेगा । वह समय कब होगा जब मुझको पत्थर की शिलावत् निर्विकल्प समाधि लगेगी और शरीर रूपी वृक्ष में पक्षी आलय करेंगे और निस्संग होकर छाती पर आन बैठेंगे?

हे देव! वह समय कब होगा जब इष्ट अनिष्ट विषय की प्राप्ति से मेरे चित्त की वृत्ति चलायमान न होगी और विराट की नाईं सर्वात्मा होऊँगा?

वह समय कब होवेगा जब मेरा सम असम आकार शान्त हो जावेगा और सब अर्थों से निरिच्छितरूप मैं हो जाऊँगा? कब मैं उपशम को प्राप्त होऊँगा-जैसे मन्दराचल से रहित क्षीरसमुद्र शान्तिमान् होता है-और कब मैं अपना चेतन वपु पाकर शरीर को अशरीरवत् देखूँगा?

कब मेरी पूर्ण चिन्मात्र वृत्ति होगी और कब मेरे भीतर बाहर की सब कलना शान्त हो जावेंगी और सम्पूर्ण चिन्मात्र ही का मुझे भान होगा? मैं ग्रहण त्याग से रहित कब संतोष पाऊँगा और अपने स्वप्रकाश में स्थित होकर संसाररूपी नदी के जरामरणरूपी तरंगों से कब रहित होऊँगा और अपने स्वभाव में कब स्थित होऊँगा?
ऐसे विचार से मानसिक परवाह अवश्य दिशा परिवर्तित होगा...
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प्रणाम जी

कामना

जीव को जब तक स्वयं आनंद प्राप्ति नहीं हो जाती, वह चाहकर भी दूसरे के सुख के लिये नहीं सोच सकता.
सुख चाहना जीव का सहज स्वभाव है, वह आनंद स्वरुप परमात्मा का अंश है.
संसार में कोई भी रिश्ता इसी स्वार्थ पर टिका हुआ है, सब एक दूसरे से अपना सुख चाहते हैं, कोई किसी से निःस्वार्थ प्रेम नहीं कर सकता भगवत्प्राप्ति तक.
इस संसार में सुख और दुःख दोनों नहीं हैं. इस पर गहराई से विचार करना चाहिये.
सुख की वास्तविक परिभाषा है 'यो वै भूमा तत्सुखम' अर्थात् जो अनंत मात्रा का हो, अनंत काल के लिये मिले, कभी छिने ना और उस पर कभी दुःख का अधिकार न हो.
संसार की किसी वस्तु में ऐसी बात नहीं होती. वह सुख सीमित होता है, क्षणिक-नश्वर होता है, प्रतिक्षण घटमान होता है और एक अवस्था में उसी वस्तु से दुःख मिलने लगता है.
दूसरी बात कि अगर किसी वस्तु में सुख होता तो वह सबको मिलता और सदा मिलता. संसार में ऐसा भी नहीं होता. शराब से शराबी को सुख तो एक कर्मकांडी को घोर दुःख होता है.
वास्तव में संसार की किसी वस्तु में जितना स्वार्थ या सुख हम मान लेते हैं, बस उसी का चिंतन होने लगता है, फलस्वरूप उसी में आसक्ति हो जाती है फिर उसी की कामना बनने लगती है.
यह कामना जितनी बलवती होती है उस वस्तु की प्राप्ति में उतना ही सुख हमें मिलता है और अगर वस्तु न मिले या छिन जाय तो उतनी ही मात्रा का दुःख हमको मिलता है.
अर्थात् सुख या दुःख वस्तु में नहीं होता, हमारे मानने पर निर्भर करता है. अगर हम सुख न मानें तो दुःख भी कभी न मिले.
संसार में दुःख के कम होने की लिमिट को ही हम सुख मान लेते हैं.
किसी भी वस्तु में सुख मान लेने से उसमे आसक्ति हो जाती है, और इससे कामना पैदा हो जाती है. यह कामना मन का सबसे बड़ा रोग है.
कामना समस्त दुखों की जननी है, पूरी हुई तो लोभ और न हुई तो क्रोध अपने आप तत्क्षण ही पैदा हो जाता है. इस कामना को अगर कोई मिटा दे तो शास्त्र कहते हैं, वह भगवान् के बराबर हो जाय.
लेकिन सुख की कामना करना जीव का स्वभाव है, अटल स्वभाव. क्योंकि वह आनंद का अंश है. लेकिन वह संसार में ही आनंद चाहे यह अटल नहीं है.
संसार में सुख नहीं है, परमात्मा में ही सुख है यह दृढ़ निश्चय करके बार बार परमात्मा में ही सुख का चिंतन करने से परमात्मा में ही आसक्ति हो जायेगी और फिर परमात्मा की ही कामना होगी.
इस प्रकार संसार के स्वरुप पर बार बार विचार करके संसार से वैराग्य करना है और परमात्मा में अनुराग. लेकिन इसके बीच भी एक अति महत्वपूर्ण तत्व है, इसकी चर्चा अगले प्रवचन में की जायेगी.

प्रणाम जी

Friday, August 14, 2015

25 पक्ष

सुप्रभात जी

अठोत्तर सौ पख साखा सही , शाला है गोलोक ।
सतगुर चरण को क्षेत्र है , जहां जाए सब सोक ।।

१०८ पक्षों को ही शाखा कहा गया है । आज तक कोई भी १०८ की व्याख्या नहीं कर सका ।  तारतम ज्ञान से ही इसका भेद खुल सका है । १०८ से तात्पर्य अध्यात्म के १०८ पक्षों से है जो क्षर, अक्षर व अक्षरातीत में विस्तृत हैं, अतः उनसे तीनों का संक्षिप्त ज्ञान हो जाता है ।

संसार के ८१ पक्ष = ९ प्रकार की भक्ति (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन, पाद सेवन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन) x ३ स्तर (प्रवाह, मर्यादा, पुष्ट) x ३ गुण (सत्, रज, तम) ।

बेहद के २ पक्ष - पहला पक्ष वल्लभाचार्य जी का है, जिन्होंने निराकार को पार करके अखण्ड गोलोक (योगमाया) का वर्णन किया । दूसरा पक्ष इस ब्रह्माण्ड में अवतरित अक्षर ब्रह्म की पांच वासनाओं (सदाशिव जी, विष्णु जी, सनकादि चार ऋषि, कबीर जी, सुकदेव ऋषि) का है, जिन्होंने अखण्ड योगमाया तक का ज्ञान दिया ।

अन्तिम २५ पक्ष अखण्ड योगमाया से भी परे दिव्य परमधाम के हैं, जिनका वर्णन आज तक इस ब्रह्माण्ड में कोई भी नहीं कर सका ।

अखण्ड गोलोक को शाला (आंगन) माना गया है । यहां गोलोक का तात्पर्य इस नश्वर जगत के किसी स्थान से नहीं है, अपितु वह तो क्षर ब्रह्माण्ड से परे अखण्ड योगमाया के ब्रह्माण्ड में है । माहेश्वर तन्त्र (५०/६६) में भी कहा गया है कि गोलोक कूटस्थ अक्षर ब्रह्म का साक्षात् हृदय है, जहां पुरुषोत्तम (अक्षरातीत) के द्वारा अखण्ड किया हुआ कृष्ण तन गोपियों के साथ क्रीड़ा करता है । सच्चिदानन्द परब्रह्म की आनन्द स्वरूपा श्री श्यामा जी के चरण कमल ही हमारा क्षेत्र हैं, जिनके दर्शन के आनन्द से सभी सांसारिक ताप मिट जाते हैं ...

प्रणाम जी

वाणी

धंन धंन धनी के वस्तर भूषन, धंन धंन आतम से न छोडूं एक खिन ।
धंन धंन सखी मैं सजे सिनगार, धंन धंन धनिएं मोकों करी अंगीकार ।।

परमात्मा के वस्त्राभूषण धन्य हैं, जिनकी शोभाका आनन्द लेनेके एक क्षणको भी मैं भूल नहीं सकती. हे सखी ! प्रियतम परमात्मा को प्रसन्न करनेवाले मेरे शील, सन्तोष आदि शृङ्गार भी धन्य हैं और वह क्षण भी धन्य है, जब परमात्मा ने मुझे स्वीकारा है...

प्रणाम जी

Thursday, August 13, 2015

सतगुर ब्रह्मानंद हैं , सूत्र है अक्षर रूप ।

सिखा सदा तिनसे परे , चेतन चिद जो अनूप ।।७७।।

आत्म भाव मे  किसी पंचभौतिक तन को सदगुरु नहीं माना जाता, अपितु परब्रह्म अक्षरातीत की आनन्द अंग (श्री श्यामा जी) को सदगुरु की महिमा दी गई है । उन्होंने ही सर्वप्रथम अज्ञानता के अन्धकार से युक्त इस सृष्टि में तारतम ज्ञान का प्रकाश किया । परम्परानुसार जनेऊ, आदि धागों को सूत्र माना जाता है, परन्तु यहाँ अक्षर ब्रह्म रूपी सूत्र को धारण करने की बात कही गई है क्योंकि वे परब्रह्म के प्रति संकेत करते हैं ।
"मै उस व्यापक प्रकृति रूपी सूत्र को जानता हूँ जिसमें ये प्रजाएँ पिरोई हुई हैं । मै सूत्र के भी सूत्र को जानता हूँ, जो कि महान ब्रह्म (अक्षर ब्रह्म) है" (अथर्व. १०/८/३८) । अर्थात् जो इस दूसरे सूत्र अक्षर ब्रह्म को जानता है, वही अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म को जान सकता है ..

प्रणाम जी

Wednesday, August 12, 2015



तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ..
इन्द्रिय निग्रह - विषयों में फँसी हुई इन्द्रियों को विवेकपूर्वक रोकना ही इन्द्रिय निग्रह है। इन इन्द्रियों के द्वारा कितना ही मायावी सुखों का उपभोग क्यों न किया जाये, मन शान्त नहीं होता, बल्कि तृष्णा पल-पल बढ़ती ही जाती है। इसके लिए हठपूर्वक दमन का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए, बल्कि शुद्ध आहार-विहार एवं ध्यान-साधना द्वारा मन-बुद्धि को सात्विक बनाकर ही इन्द्रियों को विषयों से दूर रखा जा सकता है।        
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प्रणाम जी
दोऊ दौड करत हैं, हिन्दू या मुसलमान।
ए जो उरझे बीच में, इनका सुंन मकान।।

हिन्दू और मुसलमान दोनों ही प्रमात्मा प्राप्तिके लिए परस्पर स्पर्धामें उतर आए हैं, किन्तु दोनों ही मूल घर (आनंद) तक पहुँच नहीं पाए तथा बीचमें ही फँस गए, कयोंकी इनका ध्यान प्रमात्मा से अधिक झगडों में अटक गया है...और उनका ठिकाना शून्य तक ही रहा.

प्रणाम जी

Tuesday, August 11, 2015



इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥

भावार्थ : क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥
परमात्मा ने पाँच इन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा)का निर्माण किया है, जो बाहर के विषयों की ओर ही देखती हैं । एक-एक विषयों का सेवन करने वाले पतंग (रूप), हाथी (स्पर्श), हिरण (ध्वनि), भौंरा (सुगन्ध) और मछली (रस) जब मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं, तो पाँचो इन्द्रियों से पाँचो विषयों का सेवन करने वाले प्रमादी मनुष्य की क्या स्थिति हो सकती है । अमृतत्व की इच्छा करने वाला कोई धैर्यशाली व्यक्ति ही अन्दर की ओर देखता है ..
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प्रणाम जी

ब्रह्म बोध

हद पार बेहद है , बेहद पार अछर ।
अछर पार वतन है , जागिए इन घर ।। (प्र. हि. ३१/१६५)

इस हद के ब्रह्माण्ड से परे बेहद का मण्डल है । इसके अन्तर्गत अक्षर ब्रह्म के चारों पाद सत्स्वरूप , केवल , सबलिक और अव्याकृत हैं । मूल तत्व सच्चिदानन्द पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत हैं , जो अक्षर से भी परे हैं ।
परब्रह्म सर्वव्यापक अवश्य है किन्तु अपने निजधाम में , जहाँ के कण-कण में अनन्त सूर्यों का प्रकाश है , जहाँ अनन्त आनन्द है (ऋग्वेद ९/११३/७) । गीता में भी कहा गया है कि उस ब्रह्मधाम में न तो सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा और न अग्नि ही । जहाँ जाने पर पुनः लौटना नहीं पड़ता वह मेरा परमधाम है ..

प्रणांम जी

Monday, August 10, 2015

सतसंग



हे मेरी आत्मा ! यदि तुम्हारे जीव का हृदय निर्मल नहीं है तो शरीर को बार- बार जल से नहलाने से कोई लाभ नहीं है। शरीर को स्वच्छ रखकर यदि तूं दिखावे वाली कर्मकाण्ड की भक्ति करोड़ों बार भी करोगी तो भी प्रियतम परब्रह्म से मिलन नहीं होगा।

आत्मा प्रतिबिम्ब है परआतम का। अतः उसके विकार ग्रस्त होने का प्रश्न ही नहीं। वह तो जीव पर बैठकर दृष्टा के रूप में इस खेल को देख रही है। आत्मा का दिल अलग है और जीव का दिल अलग है। जन्म-जन्मान्तरों से जीव का दिल मायावी विकारों से ग्रसित है, इसलिये उसके ही निर्मल होने की आवश्यकता है। आत्मा या उसके दिल को निर्मल करने का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि वह स्वभाव से ही निर्मल है, आवश्यकता है केवल जगत से आत्मिक दृष्टि को हटाकर युगल स्वरूप की ओर लगा देने की।

परणाम जी

वाणी

याही ठौर रूहें बसत, रात दिन रहें सनकूल।
हक अरस मोमिन दिल, तिन निमख न पडे भूल।।

अपनें ही हृदय में ब्रह्मआत्माएँ रात-दिन आनंद अनुभव करतीं हैं. क्योंकि ब्रह्मआत्माओंका हृदय ही परमात्मा का परमधाम है. इसलिए उनसे लेशमात्र भी भूल नहीं हो सकती है कि वे परमात्मा से दूर हो जाएँ ...

प्रणाम जी

Sunday, August 9, 2015



जब तक मैं प्रमात्मा के स्वरूप के प्रति अनजान थी, तब तक तो मैं अपने अपार आत्मिक सुख को खोती रही। अब जब मुझे प्रमात्मा के स्वरूप की पहचान हो गयी है, तो मैं अपने आत्मिक सुख (धन) को क्यों खोऊँ ? माया की निद्रा में जो सम्पदा (आत्मिक धन) मैंने खो दी, उसके प्रायश्चित् की अग्नि में मैं अभी तक जल रही हूँ।

प्रेम के स्वरूप की वास्तविक पहचान परमधाम की इन आत्माओं को ही होती है। एकमात्र ब्रह्मसृष्टियां ही प्रेम की राह अपना पाती हैं। प्रेम ही इनका भोजन है और प्रेम ही जल पीना भी है।

प्रेम की राह अपनाना अर्थात् प्रमात्मा
 को आत्मिक चक्षुओं से देखना एवं अपने हृदय-मन्दिर में बसाना भोजन करना है तथा उनकी शोभा में स्वयं को डुबो देना जल पीना है। इसके बिना वास्तविक आहार (आत्मिक) नहीं माना जा सकता।

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प्रणाम जी

आज चारों तरफ धर्म का व्यापार लगा है ऐसे मे सच्चे गुरू को केसे पहचानें ????

आज चारों तरफ धर्म का व्यापार लगा है ऐसे मे सच्चे गुरू को केसे पहचानें ????
(श्री प्राणनाथ वाणी पर आधारित)

शास्त्रों और पुराणों के विद्वानों, तरह-तरह की वेश-भूषा धारण करने वाले महात्मा और विभिन्न पन्थों में तुम भले ही खोजते रहो, लेकिन सद्गुरु का स्वरूप नहीं मिलेगा। सद्गुरु का स्वरूप इन सबसे अलग ही होता है। वास्तविक सद्गुरु तो इस कलियुग में कहीं एक ही होगा।
यदि तुम परम सत्य को पाना चाहते हो तो ज्ञान के अमृतमय शब्दों को पहचानो। शब्दों से ही उनके वास्तविक स्वरूप की पहचान होती है। सद्गुरु का स्वरूप किसी प्रचलित वेश-भूषा के बन्धनों में बंधा हुआ नहीं दिखायी देता। सद्गुरु के जिस स्वरूप ने प्रियतम परब्रह्म को पा लिया होता है, वह उनके प्रेम में ही डूबा हुआ होता है। ऐसे सद्गुरु अपनी अध्यात्म-सम्पदा को मायावी लोगों से छिपाकर ही रखते हैं, वे किसी भी प्रकार का सिद्धि-प्रदर्शन नहीं करते।
सद्गुरु तथा प्रियतम परब्रह्म की बड़ी महिमा है। मन का समर्पण किये बिना न तो सद्गुरु को ही रिझाया जा सकता है और न अपने प्रियतम को ही पाया जा सकता है। समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई भी मार्ग नहीं है। यदि तुम उस लक्ष्य को पाना चाहते हो तो अपनी बड़ाई के चक्कर में न पड़ो।
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प्रणाम जी

Saturday, August 8, 2015

ब्रह्मस्वरूप मुनि प्रगट हो चुके हैं



अभाविनो भविष्यन्ति मुनयो ये ब्रह्मरूपिण:
उत्पन्ना: ये कलौयुगे प्रधान पुयषाश्रया:।
कथायोगेन तान्सर्वान्पुजयिश्यन्ति मानवा:
यस्य पुजा प्रभावेण जीव सृष्टि: समुद्धर:।।
हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अ.४

अर्थात कलियुग में कभी भी न प्रगट होने वाले वे ब्रह्मस्वरूप मुनि प्रगट होंगे, जो प्रधान पुरुष अक्षरातीत के आश्रय में ही रहेंगे ।
उनके द्वारा ब्रह्मज्ञान रूपी कथायोग का श्रवण करके सभी मनुष्य उनकी पूजा करेंगे। उस पूजा के प्रभाव से संपूर्ण जीवसृष्टि का उद्धार होगा..

प्रणाम जी

वाणी

जो कोई सास्त्र संसार में , निरने कियो आचार।
त्रिगुन त्रैलोकी पांच तत्व, ए मोह अहंको विस्तार।।
(श्री प्राणनाथ वाणी)
इस संसार में जो शास्त्र ( धर्मग्रन्थ ) हैं, उनके ज्ञान के आधार पर यह प्रणालिका ( रीति ) निश्चित की गयी है कि मोह और अंहकार के ही विस्तार में सत्व, रज, तम इन तीनों गुणों, पाताल सहित पृथ्वी , स्वर्ग और बैकुण्ठ आदि लोक, तथा पांचों तत्वों की उत्पत्ति हुई है।
भावार्थ-
अध्यात्म जगत् में जिन ज्ञान रश्मियों द्वारा अज्ञानता का अन्धकार दूर करके सत्य का प्रकाश किया जाता है तथा मानव को सत्य की राह पर चलने के लिये अनुशासित किया जाता है, उन ज्ञान- रश्मियों ( किरणों ) का संकलित रूप ही शास्त्र कहलाता है।

प्रणाम जी

परब्रह्म का स्वरूप कैसा है ?

साकार स्वरूप या तो देवी-देवताओं और महापुरुषों का है, या कार्य रूप स्थूल जड़ जगत का । निराकार स्वरूप कारण रूप जड़ प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, आकाश और वायु का है । सच्चिदानन्द परब्रह्म का स्वरूप साकार और निराकार से परे शुद्ध स्वरूप और त्रिगुणातीत है, जिसे वेद में भर्गः , आदित्यवर्ण आदि तथा कुरआन पक्ष में नूर शब्द से सम्बोधित किया गया है ...

Friday, August 7, 2015

मन का नशा उतार डालिए

    मन की चाल बड़ी ही अटपटीस है इसलिए गाफिल न रहिएगा ।      इस पर कभी विश्वास न करें । विषय-विकार में इसे गर्क न होने दें । चाहे जैसे तर्क लड़ाकर मन आपको दगा दे सकता है । अवश और अशुद्ध मन बंधन के जाल में फँसाता है

मन का नशा उतार डालिए
मन एक मदमस्त हाथी के समान है । इसने कितने ही ऋषि-मुनियों को खड्डे में डाल दिय है । आप पर यह सवार हो जाय तो आपको भूमि पर पछाड़कर रौंद दे । अतः निरन्तर सजग रहें । इसे कभी धाँधली न करने दें।  इसका अस्तित्व ही मिटा दें, समाप्त कर दें ।

हाथ-से-हाथ मसलकर, दाँत-से-दाँत भींचकर, कमर कसकर, छाती में प्राण भरकर जोर लगाओ और मन की दासता को कुचल डालो, बेड़ियाँ तोड़ फेंको । सदैव के लिए इसके शिकंजे में से निकलकर इसके स्वामी बन जाओ ।

मन पर विजय प्राप्त करनेवाला पुरुष ही इस विश्व में बुद्धिमान् और् भाग्यवान है । वही सच्चा पुरुष है । जिसमें मन का कान पकड़ने का साहस नहीं, जो प्रयत्न तक नहीं करता वह मनुष्य कहलाने के योग्य ही नहीं । वह साधारण गधा नहीं अपितु मकरणी गधा है ।

वास्तव में तो मन के लिए उसकी अपनी सत्ता ही नहीं है । आपने ही इसे उपजाया है । यह आपका बालक है । आपने इसे लाड़ लड़ा-लड़ाकर उन्मत बना दिया है । बालक पर विवेकपूर्ण अंकुश हो तभी बालक सुधरते हैं । छोटे पेड़ की रक्षार्थ काँटों की बाड़ चाहिए । इसी प्रकार मन को भी खराब संगत से बचाने के लिए आपके द्वारा चौकीरुपी बाड़ होनी चाहिए ।                            
मन को देखें
    मन के चाल-चलन को सतत देखें । बुरी संगत में जाने लगे तो उसके पेट में ज्ञान का छुरा भोंक दें । चौकीदार जागता है तो चोर कभी चोरी नहीं कर सकता । आप सजाग रहेंगे तो मन भी बिल्कुल सीधा रहेगा ।
मन के मायाजाल से बचें

पहाड़ से चाहे कूदकर मर जाना पड़े तो मर् जाइये, समुद्र में डूब मरना पड़े तो डूब मरिये, अग्नि में भस्म होना पड़े तो भले ही भस्म हो जाइये और हाथी के पैरों तले रुँदना पड़े तो रुँद जाइये परन्तु इस मन के मायाजाल में मत फँसिए । मन तर्क लडाकर विषयरुपी विष    में घसीट लेता है । इसने युगों-युगों से और जन्मों-जन्मों से आपको भटकाया है । आत्मारुपी घर से बाहर खींचकर संसार की वीरान भूमि में भटकाया है । प्यारे ! अब तो जागो ! मन की मलिनता त्यागो । आत्मस्वरुप में जागो । साहस करो ।  पुरुषार्थ करके मन के साक्षी व स्वामी बन जाओ ..
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प्रणाम जी
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥

जो सुख पाऊँ राम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥

भला बुरा सब का सुनलीजै
कर गुजरान गरीबी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥

आखिर यह तन छार मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥

प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥

कहत कबीर सुनो भयी साधो
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥

Thursday, August 6, 2015

अन्धी दौड से बचें



में देख रहा था की नदी में चन्द्रमा का प्रतिबिंब था कुछ पतंगे उड़ रहे थे वो नदी के प्रतिबिंब को ही चन्द्रमा समझ कर पानी की तरफ जा रहे थे और तड़फ  तड़फ कर प्राण त्याग रहे थे कुछ और  पतंगे आ रहे थे वो उन पतंगो को मरते हुए भी देख रहे थे पर वो भी अन्धो की भाती उस नदी में ही गिरे जा रहे थे वास्तविक चन्द्रमा को कोई नही देख पा रहा था ...
यही हाल हमारा है परमात्मा से विपरीत हो गए है आनंद परमात्मा की बजाए संसार में ढूंढ रहे है और काल के ग्रास बन कर अपने अनेक जीवन वयर्थ कर चुके है अब भी देख रहे है की लोग काल के ग्रास बन रहे है किसी को अखंड आनंद नही मिल रहा फिर भी अंधे बने हुए है ..

सुधार अपने अंदर साधक को स्वयं करना है और भूलकर भी ये न सोचो कि भविष्य में कोई दिव्य शक्ति साधना करेगी। दिव्य शक्ति को जो कुछ करना है वह स्वयं करती है। उसके किए हुए अनुग्रह को भगवदप्राप्ति के पूर्व कोई समझ नहीं सकता। यही गंदी आदत यदि तुरंत नहीं छोड़ी तो नासूर बनकर विकर्मी बना देगी और फिर उच्छृंखल होकर कहोगे सब कुछ उन्ही को करना है। इसलिए तुरंत निश्चय बदलो..
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प्रणाम जी

संसार से परे का ग्यान

सुपन बुध बैकुण्ठ लों , या निरंजन निराकार ।

सो क्यों सुन्य को उलंघ के , सखी मेरी क्यों कर लेवे पार ।। ( श्री मुख वाणी- परि. २/४ )

इस माया के संसार में परब्रह्म का स्वरूप नहीं है । इस कालमाया के ब्रह्माण्ड के शब्द , मन , चित्त और बुद्धि के द्वारा निराकार से आगे नहीं जाया जा सकता है । सपने की बुद्धि बैकुण्ठ और निराकार तक ही जा सकती है । इससे भी परे बेहद एवं उससे परे अक्षर-अक्षरातीत तक सपने की बुद्धि की पहुँच हो ही नहीं सकती है ।

गीता में पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि एवं अहंकार को अपराशक्ति कहा गया है क्योंकि यह बनते और मिटते हैं । यह मिथ्या नाशवान शक्ति हैं । ( गीता ७/४ )

इस अपरा से परे दूसरी चेतन अखण्ड शक्ति है , जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बनता है (गीता ७/५)। अतः जिससे करोड़ों ब्रह्माण्ड पैदा होते हैं और नष्ट होते हैं , उसे ही पराशक्ति कहते हैं । उसे बेहद मण्डल , योगमाया अथवा अक्षर ब्रह्म का चतुर्ष्पाद स्वरूप भी कहते हैं ।

 प्रणाम जी

मन को इस प्रकार समझायें...

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राजकुमार उद्दालक युवावस्था में ही विवेकवान होकर पर्वतों की गुफाओं में जा-जाकर अपने मन को समझाते थेः “अरे मन ! तू किसलिए मुझे अधिक भटकाता है ? तू कभी सुगंध के पीछे बावरा हो जाता है, कभी स्वाद के लिए तडपता है, कभी संगीत के पीछे आकर्षित हो जाता है । हे नादान मन ! तूने मेरा सत्यानाश कर दिया । क्षणिक विषय-सुख देकर तूने मेरा आत्मानंद छीन लिया है, मुझे विषय-लोलुप बनाकर तूने मेरा बल, बुद्धि, तेज, स्वास्थ्य, आयु और उत्साह क्षीण कर दिया है ।”
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राजकुमार उद्दालक पर्वत की गुफा में बैठे मन को समझाते हैं: “अरे मन ! तू बार-बार विषय-सुख और सांसारिक सम्बन्धों की ओर दौडता है, पत्नी बच्चे और मित्रादि का सहवास चाहता है परन्तु इतना भी नहीं सोचता कि ये सब क्या सदैव रहनेवाले हैं ? जिन्हें प्रत्येक जन्म में छोडता आया है वे इस जन्म में भी छूट ही जायेंगे फिर भी तू इस जन्म में भी उन्हीं का विचार करता है ? तू कितना मूर्ख है ? जिसका कभी वियोग नहीं होता, जो सदैव तेरे साथ है, जो आनन्दस्वरुप है, ऎसे आत्मदेव के ध्यान में तू क्यों नहीं डूबता ? इतना समय और जीवन तूने बर्बाद कर दिया । अब तो शांत हो बैठ ! थोडी तो पुण्य की कमाई करने दे ! इतने समय तक तेरी बात मानकर, तेरी संगत करके मैंने अधम संकल्प किये, कुसंग किये, पापकर्म किये ।अब तो बुद्धिमान बन, पुरानी आदत छोड । अंतर्मुख हो ।”

उद्दालक की भांति इसी प्रकार एक बार नहीं परन्तु प्रतिदिन मन के कान खींचने चाहिए ।
    मन पलीत है । इस पर कभी विश्वास न करें । आपके कथनानुसार मन चलता है या नहीं, इस पर निरन्तर द्रुष्टि रखें । इस पर चौबीसों घण्टे जाग्रुत पहरा रखें । मन को समझाने के लिए विवेक-विचाररुपी डंडा सतत आपके हाथ में रहना चाहिए । नीति और मर्यादा के विरुद्ध मन यदि कोई भी संकल्प करे तो उसे दण्ड दो । उसका खाना बंद कर दो । तभी वह समझेगा कि मैं किसी मर्द के हाथ में पड गया हू । अब यदि सीधा न चलून्गा तो मेरी दुर्दशा होगी ।
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Wednesday, August 5, 2015

वाणी

इतहीं सिजदा बंदगी , इतहीं जारत जगात ।

इतहीं जिकर हक दोस्ती , इतहीं रोजा खोलात ।।  (श्री मुख वाणी- सि. २/४६)

अब हमें अपनें धाम हृदय में विराजमान धाम धनी पूरणबृह्म परमात्मा के चरणों में प्रणाम करना है और अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति से इन्हें रिझाना है । इन्हीं के दर्शन  तीर्थ यात्रा (जियारत)  है और इन्हीं पर अपना सर्वस्व समर्पण (जकात) करना है । इन्हीं के चरणों में बैठकर पूरणबृह्म परमात्मा के प्रेम की वार्ता रूपी चर्चा (जिकर) का श्रवण करना है । इन्हीं पूरणबृह्म परमात्मा जी के पावन सान्निध्य में श्रृद्धा और सेवा के द्वारा स्वयं को पवित्र करना (रोजे रखना) है ..

प्रणाम जी

सत्संग क्या है

जन्मो से हमे एक भयानक रोग हो गया है की हम सच को झूट और झूट को सच मानने लगे है इस कारण हम सत्संग का मतलब भी झूट का संग समझने  लगे है इसलिए सत्संग के नाम पे झूट का ही संग करते है सत्संग की व्याख्या से पहले  हमें  ये जानना जरूरी है की सच क्या है और झूट क्या है पहले जान  लें की झूट क्या है हमारा ये पञ्च भोतिक शरीर या पञ्च तत्त्व से बनी कोई भी चीज़  अन्दर मन चित बुद्धी और अहंकार ये सब झूट है फिर सच क्या है एक मात्र परमात्मा और उसके अंशी आत्मा ही सत्ये है
अब इसी थ्योरी से सच झूट को समजना होगा ..हमे यानि हमारे जीव को इस संसार में आये  अनंत जन्म बीत चुके है इस कारण ये जीव पञ्च भोतिक तत्वों को ही सच मान बैठा है जरा सोचिये मंदिर में रखी मूर्ति क्या पञ्च भोतिक नही है तो क्या वो सच है? और  ऊपर से है हम उन झूटी मूर्तियों की भी फोटो लेके कहते है की आज के दर्शन मतलब झूटी मूर्ति की भी झूटी तस्वीर के साथ हम सत्संग करते है क्या ये सत्संग है फिर झूटे शरीरो में आस्था रखते है चेतनता से हमारा कोई नाता नही रह गया है तो सत्ये क्या है ..?? सत्ये केवल परमात्मा का विषये है सत्ये का ध्यान सत्ये है सत्ये का ज्ञान सत्ये है सत्ये की बात सत्ये है सत्ये का बोध सत्ये है
इस सत्येता में उतर के देखिये आप अपने आप असत्य से दूर हो जायेंगे सावधान रहें झूट कब सत्ये में मिलके हमे भरमित कर देती है हमे पता भी नही चलता सत्ये का कोई नाम नही है इसलिए नाम को सत्ये मत मानो बल्कि केवल सत्ये को स्वीकार करो चाहे कोई भी नाम से हो सत्ये का कोई नाम नही होता क्योंकि हम तीन गुणों के संसार में रहते है इसलिए हम सत्ये को भी गुणों के आधार  पर देखते है इसलिए उसका गुणों के अनुरूप नाम या संबोधन करते है जो कालांतर के साथ नाम बन जाता है जिस से भरम और असत्य का जन्म हओता है
इसलिए सत्ये को समझ कर केवल  सत्संग करें ...मेरी बात से अगर किसी भी तरह से आपके अहंकार को ठेस पोहोचती है तो मै आपसे चरण वंदन क्षमा मंगतता हूँ .
सत सुपने में क्यों कर आये सत साईं है न्यारा {वाणी कि. ३२/२  }
प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) 
उपनिषद में स्पष्ट रूप कहा गया है कि अमृतस्वरूप दिव्य ब्रह्मपुर में परब्रह्म स्थित है ( मुण्डकोपनिषद् २/२/७ ) ।वेद का कथन है कि उस अनादि अक्षरातीत परब्रह्म के समान न तो कोई है , न हुआ है और न कभी होगा । इसलिए उस परब्रह्म के सिवाय अन्य किसी को भी परमात्मा नही कहा जा सकता  (ऋग्वेद ७/३२/२३) ।
तिन कबीले में रहना , पूजे  पानी  आग पत्थर।
बेसहूर  इन   भांत   के , जान  बूझ  जले  काफर।। (प्राणनाथ वाणी)
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प्रणाम जी 

Tuesday, August 4, 2015

(आत्मा परमात्मा के बीच सुन्दर संवाद)

सुप्रभात जी

पुराणसंहिता अध्याय 23 (आत्मा परमात्मा के बीच सुन्दर संवाद)

अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म अपनी आत्माओं से कहते हैं, प्रकृति की लीला मोहित करने वाली तथा अपने अमृतमयी आनन्द रूपी दीवाल को स्याही की तरह काली करने वाली है, जहां केवल प्रवेश करने मात्र से अपनी बुद्धि नहीं रहती है ।।५६।। पांच तत्वों से बने हुए शरीर को ही अपने आत्मिक रूप में माना जाता है, जिससे आत्मिक गुण तो छिप जाते हैं ।।५७।। और उनकी जगह मोह जनित दोष पैदा हो जाते हैं । हे सखियों ! तुम वहां जाकर माया के ही कार्यों को करोगी । जिस माया में आत्मा के आनन्द को हरने वाली तृष्णा रूपी पिशाचनी है ।।५८।। जहां काम, क्रोध, आदि छः शत्रु स्थित हैं, जो जीव को पाप में डूबोकर तथा क्रूर कर्म कराकर उसे बलहीन करके लूट लेते हैं ।।५९।। वहां जाकर तुम यहां के अपने स्वाभाविक गुणों, सौन्दर्य और चतुरता के विपरीत हो जाओगी । मुझे तुम कहीं भी नहीं देखोगी और हमेशा ही मुझको भूली रहोगी ।।७८।
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प्रणाम जी

प्रमातमा कौन है

सभी ध्रम ग्रन्थो मे तीन पुरुषो का जिक्र किया गया है अर्थात प्रमातमा तीन रुपो मे लीला करते है गीता मे

(भगवत गीता अध्याय १५ - स्लोक १६ तीन पुरुष का वर्णन )
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च क्षर: सर्वाणि भूतानि कुटस्थो अक्षर उच्यते। उत्तम: पुरुषस्त्त्वन्य: परमात्मेत्युदाह्रत:।

इस बिराट ब्रह्माण्ड मे क्षर नाशवान और अविनाशी अनादि अक्षर दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूतप्राणियों सहित नारायण पर्यन्त के लोकालोक सभी नाशवान हैं, और अक्षर पुरुष जो नारायण के रचयिता है, वे अविनाशी है । इस से आगे एक अन्य परमपुरुष अक्षरातीत है, उन्हीं को ही "परमात्मा" कहा जाता है।

नानक जी ने भी तीन पुरुषो का जिक्र कीया है
क्षर के पार अक्षर के पारा ताय पुरुष का करो विचारा।

कुरान मे भी
लाह
इलाह
और इलल्लाह ये तीन पुरुषो का जिक्र है

इसी प्रकार बाइबल मे

God
Truth
Suprem truth god

का वणर्न है

तो आइये जानते है तीन पुरुषो की लीला मेरा आप से चरण वन्दन निवेदन है क्रपया धर्य पूर्वक पूरा पढें प्रणाम जी...






तीन पुरुष और उनकी लीला-

गीता में कहा गया है कि दो पुरुष हैं- क्षर एवं अक्षर । सभी प्राणी एवं पंचभूत आदि क्षर हैं तथा इनसे परे कूटस्थ अक्षर ब्रह्म कहे जाते हैं । इनसे भी परे जो उत्तम पुरुष अक्षरातीत हैं, एकमात्र वे ही परब्रह्म की शोभा को धारण करते हैं । (गीता १५/१६,१७)

कुछ लोग भ्रमवश प्रकृति को अक्षर कहते हैं । इस सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त कारण प्रकृति तो जड़ तथा नश्वर है । इसके अतिरिक्त, यदि प्रकृति अक्षर है तो उसे पुरुष के रूप में वर्णित क्यों नहीं किया गया ?

कुछ लोग अज्ञानता के कारण जीव तथा नारायण को ही अक्षर कहते हैं । नारायण और जीव एक ही स्वरूप हैं तथा दोनों महाप्रलय में नष्ट हो जाते हैं ।

तारतम ज्ञान की दृष्टि में यह सम्पूर्ण साकार-निराकार जगत (प्रकृति, नारायण सहित) क्षर है, इससे परे तेजमय अविनाशी ब्रह्म अक्षर हैं तथा उनसे भी परे सच्चिदानन्द स्वरूप अक्षरातीत हैं ।

इन तीन अलौकिक पुरुष व उनकी लीलाओं का विस्तृत वर्णन पढ़ें-

१. क्षर पुरुष

२. अक्षर पुरुष

३. अक्षरातीत परब्रह्म

क्षर पुरुष

अक्षर ब्रह्म के मन (अव्याकृत) के स्वप्न में मोह सागर (महत्तत्व) में नारायण (आदि पुरुष , विराट पुरुष) का स्वरूप प्रकट होता है , जिन्हें क्षर पुरुष या प्रणव (ॐ) कहते हैं । उन्हें ही आदि नारायण , हिरण्यगर्भ , महाविष्णु , प्रथम पुरुष , शब्द ब्रह्म , आदि नामों से जाना जाता है । इन्हीं से वेद प्रकट होते हैं तथा सभी जीव इन्हीं की चेतना का प्रतिभास स्वरूप हैं। सम्पूर्ण जीव समुदाय , पञ्च भूतात्मक जगत, अष्टधा प्रकृति (पञ्चभूत, मन, बुद्धि, अहंकार) , आदि नारायण तथा महाशून्य (मोह सागर) सभी क्षर पुरुष के अन्तर्गत आते हैं ।

इत अछर को विलस्यो मन, पांच तत्व चौदे भवन ।

यामें महाविष्णु मन, मन थें त्रैगुन, ताथें थिर चर सब उतपन ।। (श्रीमुख वाणी- प्र. हि. ३७/२४)

इस मोह सागर के अन्दर अक्षर ब्रह्म के मन के स्वरूप अव्याकृत के मन ने प्रवेश किया, जिसके कारण यह पाँच तत्व तथा चौदह लोक का ब्रह्माण्ड बना । इसमें अव्याकृत का मन के स्वरूप महाविष्णु (क्षर पुरुष) बने और फिर इस के तीन गुणों से सदाशिव, ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु और शिव उत्पन्न हुए और उनसे ही यह सारा संसार बना है ।

नारायण की नाभि से कमल निकलता है और उससे ब्रह्मा प्रकट होते हैं । वह ब्रह्मा वेदों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता कहलाते हैं और संसार रूपी वृक्ष के बीज हैं । अहंकार को ही नाभि कहा गया है। कमल की नाल इच्छा शक्ति और कमल का फूल उनके मन का प्रतीक है । आदि नारायण के मन में जब यह इच्छा हुई कि मै अनेक हो जाऊँ, तो उससे अहंकार उत्पन्न हुआ, जिससे सभी देव, जीव और यह मिटने वाला संसार खड़ा हुआ ।

कालमाया के ब्रह्माण्ड में द्वैत की लीला है अर्थात् जीव (नारायण, त्रिदेव, देवी-देवता, मनुष्य, अन्य चराचर प्राणी) तथा प्रकृति (माया) की लीला है । इसमें जन्म-मरण , सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है । अहंकार रूपी कड़ी जब तक नहीं छूटती, तब तक संसार झूठा होते हुए भी सच्चा लगता है और उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता । जब तक जीव का अहंकार नष्ट नहीं होगा तब तक आवागमन का चक्र समाप्त नहीं हो सकता । अतः नारायण से लेकर जीवों तक यह सारी सृष्टि मोह (अज्ञान) रूप है । ब्रह्मज्ञान (तारतम) व प्रेम का मार्ग पकड़कर ही इस भवसागर को पार किया जा सकता है ।

जिसका प्रतिदिन क्षरण हो, उसे ही क्षर कहते हैं । इस क्षर ब्रह्माण्ड को ही हद , कालमाया , मोह जल , भवसागर , आदि नामों से भी जाना जाता है । जिस प्रकार नींद टूटने पर सपना टूट जाता है तथा स्वप्न के सभी दृश्य समाप्त हो जाते हैं , उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म के मन (अव्याकृत) का स्वप्न टूटते ही सम्पूर्ण जगत महाप्रलय में लीन हो जाता है ।



अक्षर ब्रह्म

क्षर से परे जो अविनाशी, अखण्ड, नूरमयी तत्व है, उसे अक्षर कहा जाता है ।

अछर सरूप के पल में , ऐसे कई कोट इंड उपजे ।

पल में पैदा करके , फेर वाही पल में खपे ।। (श्रीमुख वाणी- कि. ७४/२६)

अक्षर ब्रह्म के एक पल में करोड़ों ब्रह्माण्ड बनते और नष्ट हो जाते हैं ।

उस सर्वोत्पादक ब्रह्म (अक्षर ब्रह्म) ने द्यौ और पृथ्वी को दृढ़ता से स्थिर किया । उसने ही आनन्दमय लोक और उसने ही प्रकाशमय मोक्षधाम (योगमाया) धारण कर रखा है । उसने ही अन्तरिक्ष और लोक-लोकान्तरों को बनाया है । उसकी कृपा से विद्वान मोक्ष को प्राप्त करते हैं। (अथर्ववेद १३/१/७)

जो उत्पन्न हुआ, जो उत्पन्न होने वाला है और जो यह वर्तमान जगत है, इस सब के प्रति पुरुष (अक्षर ब्रह्म) ही अपना विक्रम दर्शा रहा है । सभी चराचर प्राणी तथा प्राकृतिक लोक इस पुरुष के एक पाद (चतुर्थ पाद मनस्वरूप अव्याकृत) के संकल्प से निर्मित हैं और इस पुरुष के तीन पाद (सबलिक, केवल, सत्स्वरूप) उत्पत्ति तथा विनाश से रहित अपने अखण्ड प्रकाशमय स्वरूप में विद्यमान रहते हैं । (ऋ. १०/९०/२, यजु. ३१/२, साम. आरण्यक ६/४/५)

अक्षर ब्रह्म जो इच्छा करते हैं, वही इच्छा सत् स्वरूप में आ जाती है । वही इच्छा केवल, सबलिक होते हुए मन के स्वरूप अव्याकृत में आ जाती है । उसी से सृष्टि की रचना होती है। अक्षर ब्रह्म का चौथा पाद अव्याकृत, इस प्राकृतिक जगत की उत्पत्ति का निमित्त कारण है । उसके संकल्प मात्र से उत्पन्न प्रकृति असंख्यों लोक-लोकान्तरों का निर्माण करती है । निमित्त कारण होने के कारण अव्याकृत ब्रह्म इस जगत से परे है । इस जड़ जगत में केवल उनकी सत्ता है, उनका स्वरूप नहीं । अतः अव्याकृत भी अखण्ड हैं।

अव्याकृत से परे अक्षर ब्रह्म के तीन पाद इस प्रकार हैं - सबलिक ब्रह्म (चित्त स्वरूप), केवल ब्रह्म (बुद्धि स्वरूप), सत्स्वरूप ब्रह्म (वास्तविक स्वरूप) । सबलिक ब्रह्म के सूक्ष्म में चिदानन्द लहरी नामक शक्ति विराजमान है जो माया और  त्रिगुण (आदि नारायण) का मूल स्थान है । शंकराचार्य जी ने 'सबलिक ब्रह्म' को ही पूर्ण ब्रह्म मानते हुए चिदानन्द लहरी को उनकी महारानी माना है (सौन्दर्य लहरी ग्रन्थ- श्लोक ९८) । सबलिक से परे 'केवल ब्रह्म' की नौ रसों वाली आनन्दमयी भूमि है (तैतरीयोपनिषद्) । इससे परे अक्षर ब्रह्म के अहं का स्वरूप 'सत्स्वरूप ब्रह्म' हैं । यह तीनों पाद अखण्ड, प्रकाशमय और सुखमय हैं । इन्हें ही वेद में त्रिपाद अमृत कहा गया है ।

अक्षर ब्रह्म की लीला के इस अखण्ड ब्रह्माण्ड को बेहद या योगमाया कहते हैं । यह ब्रह्माण्ड चैतन्य, अविनाशी है तथा इसके कण-कण में करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमय ब्रह्म का स्वरूप विद्यमान है । यहाँ अक्षर ब्रह्म के अन्तःकरण की अद्वैत लीला अखण्ड रूप से होती है । अक्षर ब्रह्म अपनी अभिन्न शक्ति स्वरूपा अखण्ड चैतन्य माया के साथ लीला करते हैं ।

अक्षर ब्रह्म का मूल स्वरूप इन चारों अखण्ड पादों से ऊपर है । वह सच्चिदानन्द परब्रह्म के सत् स्वरूप हैं तथा योगमाया से परे अखण्ड परमधाम में रहते हैं । अक्षर ब्रह्म का स्वरूप अखण्ड एक रस है । वह अनादि काल से जैसा था, वैसा ही अब भी है और अनन्त काल के पश्चात् भी वैसा ही रहेगा । उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति में कभी भी कमी नहीं आ सकती । उसकी उपासना करके, साक्षात्कार करने वाले अविनाशी धाम को प्राप्त होते हैं ।



अक्षरातीत परब्रह्म

पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप निराकार (मोहतत्व) से परे बेहद, उससे परे अक्षर से भी परे है । मुण्कोपनिषद् में कहा गया है कि उस अनादि, अविनाशी, कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे जो चिदघन स्वरूप है, उन्हें ही अक्षरातीत कहते हैं । परब्रह्म, परमात्मा, पूर्णब्रह्म, सनातन पुरुष, श्री राज, प्राणनाथ, आदि उन्हीं के सम्बोधन हैं ।

अतिशय तेज (असंख्यों सूर्य) से प्रकाशमान, अति मनोहारिणी, यशोरूप तेज से चारों ओर से घिरी हुई, अति तेजस्विनी, किसी से भी न जीती गई उस ब्रह्मपुरी में ब्रह्म प्रवेश किए हुए हैं । (अथर्ववेद १०/२/३३)

आठ चक्रों और नवद्वारों से युक्त, अपने आनन्द स्वरूप वालों की, किसी से युद्ध के द्वारा विजय न की जाने वाली (अयोध्या) पुरी है । उसमें तेज स्वरूप कोश सुख स्वरूप है जो ज्योति से ढका हुआ है (अथर्ववेद १०/२/३१) । यहाँ आठ चक्रों का तात्पर्य शरीर के आठ चक्रों से अथवा प्रकृति के आठ आवरणों से नहीं है क्योंकि यह तो नाशवान हैं, जबकि इस ब्रह्मपुरी को अमृत स्वरूप कहा गया है । श्रीमुख वाणी में वर्णित परमधाम को घेरकर आए आठ सागरों को ही आठ चक्र कहकर सम्बोधित किया गया है । इसी प्रकार नवद्वारों को परमधाम की नव भूमियों के लिए वर्णित किया गया है । अयोध्या कहने का अभिप्राय है कि इस परमधाम में संसार का कोई भी जीव (नारायण सहित) ध्यानावस्था में कदापि प्रवेश नहीं कर सकता । सशरीर तो कोई भी प्राणी निराकार से आगे योगमाया में भी नहीं जा सकता ।

बुध तुरिया दृष्ट श्रवना , जेती गम वचन ।

उतपन सब होसी फना , जो लो पोहोंचे मन ।।   (श्रीमुख वाणी- कि. २७/१६)

बुद्धि, चित्त, मन, दृष्टि, श्रवण और वाणी की पहुँच से वह परब्रह्म सर्वथा परे हैं । यह उत्पन्न होने वाला सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही नश्वर है । इसलिए यहाँ की किसी भी वस्तु से उस परम तत्व को कहा नहीं जा सकता है ।  

अक्षरातीत नूरजमाल , ए तरफ जाने अछर नूर ।

एक या बिना त्रैलोक को , इन तरफ की न काहू सहूर ।। (श्रीमुख वाणी- सि. २/५४)

अर्थात् एकमात्र अक्षर ब्रह्म ही पूर्णब्रह्म अक्षरातीत (नूरजमाल) के विषय में जानते हैं । उनके अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अक्षरातीत की कोई भी जानकारी नहीं है । अतः पूर्ण ब्रह्म का विषय अति गोपनीय है तथा तारतम ज्ञान के बिना उन्हें नहीं जाना जा सकता है ।

उस तेजोमय कोश में तीन अरे (अक्षर ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म तथा आनन्द अंग) तीन (सत् चित् आनन्द) में प्रतिष्ठित हैं । उसमें जो परम पूज्यनीय तत्व, परमात्मस्वरूप हैं, उसका ही ब्रह्मज्ञानी लोग ज्ञान किया करते हैं । (अथर्ववेद १०/२/३२)

वह परब्रह्म सत् , चिद् , आनन्द लक्षणों वाला है, इसलिए उसे सच्चिदानन्द कहते हैं । परब्रह्म स्वयं चिदघन स्वरूप हैं, उनकी सत्ता का स्वरूप अक्षर ब्रह्म हैं तथा आनन्द का स्वरूप श्री श्यामा जी हैं । यह तीनों मिलकर सच्चिदानन्द स्वरूप कहलाते हैं । वैसे तो वह तीनों एक ही स्वरूप माने जायेंगे, परन्तु उनमें लीला रूप में भेद है । अक्षर ब्रह्म सत्ता के स्वरूप हैं जबकि अक्षरातीत अपनी आनन्द अंग श्यामा जी व आत्माओं के साथ पवित्र प्रेम व आनन्द की लीला करते हैं ।

अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म श्री राज जी का स्वरूप अक्षर ब्रह्म की भांति सर्वदा एकरस रहता है । उनके स्वरूप में न तो ह्रास होता है, न ही विकास । उनका स्वरूप नूरमयी (शुक्रमयी), अनन्य प्रेममयी और आनन्दमयी है ।

सरूप सुन्दर सनकूल सकोमल , रूह देख नैना खोल नूरजमाल ।   (श्रीमुख वाणी- कि. ११२/१)

श्री महामति जी कहते हैं कि हे मेरी आत्मा ! तू अपने नेत्रों को खोलकर अपने आधार (अक्षरातीत) का दर्शन कर, जिनका स्वरूप अति सुन्दर, प्रफुल्लित और कोमल है ।

इन सिंघासन ऊपर , बैठे जुगल किसोर ।

वस्तर भूखन सिनगार , सुन्दर जोत अति जोर ।।  (श्रीमुख वाणी- सागर १/११८)

परमधाम में सिंहासन पर अपने अनुपम किशोर स्वरूप में श्री राज श्यामा जी (पूर्णब्रह्म अक्षरातीत व उसकी आनन्द स्वरूपा) विराजमान हैं । उनके वस्त्र, आभूषण तथा श्रृंगार ज्योति से परिपूर्ण अत्यधिक सुन्दर हैं ।

परमधाम में स्वलीला अद्वैत है । वहाँ का कण-कण सच्चिदानन्दमयी है । जिस प्रकार चन्द्रमा से चांदनी, सागर से लहरें, सूर्य से किरणें अलग नहीं होती, उसी प्रकार सच्चिदानन्द परब्रह्म से आत्मायें कभी अलग नहीं होती , बल्कि उन्ही का स्वरूप होती हैं । यही 'स्वलीला अद्वैत' का रहस्य है ।

अछरातीत के मोहोल में , प्रेम इस्क बरतत ।

सो सुध अक्षर को नहीं , जो किन विध केलि करत ।।  (श्रीमुख वाणी- कि. ७४/२९)

अक्षरातीत परब्रह्म के रंगमहल में अनन्य प्रेम (इश्क) की सर्वदा ही लीला होती रहती है । अक्षरातीत अपनी प्रियाओं (आत्माओं) से किस प्रकार प्रेम की लीला करते हैं, इसकी जानकारी अक्षर ब्रह्म को भी नहीं थी ।

परमधाम भी अक्षरातीत के समान नूरमयी, मनोहारिणी व अत्यधिक प्रकाशमान है । वहाँ प्रत्येक वस्तु में चार गुण हैं- चेतनता, नूर (तेज), कोमलता और सुगन्धि । वहाँ की हर वस्तु अक्षरातीत का ही स्वरूप है, उन्हीं के समान चेतन और उनकी प्रेम की लीला में भली प्रकार सम्मिलित होती है । प्रत्येक वस्तु प्रेम और आनन्द के रस से ओत-प्रोत है ।

Monday, August 3, 2015

सुधार

सुधार अपने अंदर साधक को स्वयं करना है और भूलकर भी ये न सोचो कि भविष्य में कोई दिव्य शक्ति साधना करेगी। दिव्य शक्ति को जो कुछ करना है वह स्वयं करती है। उसके किए हुए अनुग्रह को भगवदप्राप्ति के पूर्व कोई समझ नहीं सकता। यही गंदी आदत यदि तुरंत नहीं छोड़ी तो नासूर बनकर विकर्मी बना देगी और फिर उच्छृंखल होकर कहोगे सब कुछ उन्ही को करना है। इसलिए तुरंत निश्चय बदलो
दिव्य ब्रह्मपुर धाम है , घर अक्षरातीत निवास ।
निजानन्द है सम्प्रदा , ए उत्तर प्रस्न प्रकास ।।८३।।

ब्रह्मसृष्टियों का धाम दिव्य ब्रह्मपुर (परमधाम) है, जो क्षर व अक्षर से परे स्थित है । उस परमधाम का कण-कण तेज, सुगन्धि, चेतनता और आनन्द से परिपूर्ण है । वही धाम अक्षरातीत व ब्रह्मसृष्टियों के मूल तनों (परआतम) का असल निवास है । यहां के कण-कण में अक्षरातीत का स्वरूप विराजमान होने से इसे स्वलीला अद्वैत कहा जाता है ।

जो सर्वज्ञ, सबको जानने वाला ब्रह्म है, जिसकी महिमा जगत में है, निश्चित रूप से वह ब्रह्म अमृतस्वरूप दिव्य ब्रह्मपुर में स्थित है । (मुण्डक. २/२/७-३९)

प्रणाम जी

Sunday, August 2, 2015

"संसार के सुख और भोग बादलों में कौंधने वाली विद्युत के समान अस्थिर हैं । जीवन हवा के झरोकों से लहलहाते कमल के पत्तों पर तैरने वाली पानी की बूँद के समान क्षणभंगुर है । जीवन की उमंगें और वासनाएँ भी अस्थायी हैं । बुद्धिमान को चाहिए कि इन सब बातों को समझकर अपने मन को स्थिरता और धैर्य के साथ ब्रह्मचिन्तन में लगाये । संसार के नाना प्रकार के सुख भोग क्षणभंगुर हैं और साथ ही संसार में आवागमन के कारण हैं । इस संसार का कोई भी सुख स्थिर नहीं है , अतः सुख के लिए मारे मारे फिरना व्यर्थ है । भोगों का संग्रह बंद करो और अपने आशा रूपी बन्धनों के त्याग से निर्मल हुए मन को अपने आत्म स्वरूप में और परब्रह्म में स्थिर करो । भोगों की ओर से मन को हटाकर परब्रह्म में लगाना ही सर्वोतम कार्य है ..

प्रणाम जी

Saturday, August 1, 2015

भ्रान्ति



हमें जो लगता है कि शरीर मैं हूँ तो यह भ्रान्ति है । भ्रान्ति दो प्रकार की होती है
 1- सविकल्प भ्रान्ति -इसकी विशेषता है कि ज्ञान होने पर भ्रान्ति नहीं दिखती जैसे कि रस्सी में सर्प समझ लिया परन्तु रस्सी का ज्ञान होने पर सर्प नहीं दिखेगा ।
 2-निर्विकल्प भ्रान्ति -इस भ्रान्ति में ज्ञान होने के बाद भी भ्रान्ति दिखती रहती है जैसे कि आकाश गोल और नीला दिख रहा है तर्क के द्वारा जान लेने पर भी कि आकाश गोल और नीला नहीं है, हमें आकाश गोल और नीला ही दिखता है ।
ऐसे ही शास्त्र प्रमाण से ज्ञात हो गया कि मैं यह शरीर नहीं हूँ फिर भी लग रहा है कि शरीर ही मैं हूँ (यह निर्विकल्प भ्रान्ति है) परन्तु लगने से घबड़ाओ नहीं , बुद्धि में ढृढ़ निश्चय रखो कि शरीर मैं (आत्मा) नहीं हूँ मैं सतचिदानन्द स्वरुप आत्मा हूँ । आत्मा जब तीनों शरीर के द्वारा व्यक्त (प्रतिबिम्बित) होती है तो अनंत होते हुए भी परिच्छिन्न लगती है । यही चिदाभास है । चिदाभास में जो अहं का भाव है वही जीव है।
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प्रणाम जी

बोले चाले पर कोई न पेहेचाने, परखत नहीं परखानो ।
महामत कहें माहें पार खोजोगे, तब जाए आप ओलखानो ।।

अनेक लोगोंने परमात्माके विषयमें ज्ञाानोपदेश दिया तथा अनेक लोगोंने परमात्माकी प्राप्तिके लिए साधनाएँ भी कीं किन्तु किसीने भी उन्हें नहीं पहचाना. इस प्रकार प्रयत्न करनेपर भी पहचान योग्य परब्रह्म परमात्मा पहचाने नहीं गए. शंकराचार्य जी कहते हैं कि किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी , जिसमें श्रुति के सिद्धान्त का ज्ञान होता है , ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़ बुद्धि अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता है , वह असत् ( जड़ प्रकृति ) में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है और निश्चय ही वह आत्मघाती है । ( विवेक चूड़ामणि ४ ) इसलिय अन्तर्मुख होकर जब परम तत्त्वको ढूँढोगे, तब आत्मा और परमात्माकी स्वतः पहचान हो जाएगी..यही जीवन की सार्थकता है और मानव जीवन का परम और एकमात्र लक्षय ...

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प्रणाम जी