प्रेमको ब्रह्मका ही स्वरूप माना जाता है । वास्तवमें ब्रह्मधाममें ही प्रेम है और ब्रह्मधामकी लीलाओंके द्वारा ही वह प्रकट होता है । पूर्णब्रह्म परमात्माने जब अपनी अन्तरंग लीला(ब्रह्मधामकी लीला)को इस नश्वर जगतमें प्रकट किया तब यह प्रेम भी इस जगतमें प्रकट हुआ है । इसीलिए महामति कहते हैं, इस जगतमें प्रेम लेशमात्र भी नहीं था उसको सर्वप्रथम ब्रह्मात्माओंने ही प्रकट किया । व्रजकी गोपियाँ ब्रह्मात्माएँ थीं । इसलिय उनका ही उदाहरण दिया जाता है ।
जो आत्मा अक्षरातीत पूर्णब्रह्म परमात्माके प्रति समर्पित होती है उसके हृदयसे प्रेमका प्रवाह प्रवाहित होने लगता है । ऐसे प्रेम रसमें डुबी हुई आत्माएँ अपने प्रेमको शब्दके द्वारा व्यक्त नहीं कर सकतीं । उनके अंग प्रत्यङ्गसे प्रेम प्रकट होता है इसलिए उनकी वाणीके साथ-साथ सारी चेष्टायें प्रेमसे ओतप्रोत होती हैं ।
प्रेमलक्षणा भक्तिकी दशाकी पराकाष्टाका वर्णन ..
रस मगन भई सो क्या गावे।
विचली बुध मन चित मनुआ, ताए सबद सीधा मुख क्यों आवे ।।
विचले नैन श्रवन मुख रसना, विचले गुन पख इन्द्री अंग ।
विचली भांत गई गत प्रकृत, विचल्यो संग भई और रंग ।।
विचली दिसा अवस्था चारों, विचली सुध ना रही सरीर ।
विचल्यो मोह अहंकार मूलथें, नैनों नींद न आवे नीर ।।
विचल गई गम वार पारकी, और अंग न कछुए सांन ।
पिया रसमें यों भई महामत, प्रेम मगन क्यों करसी गांन ।।
प्रणाम जी
जो आत्मा अक्षरातीत पूर्णब्रह्म परमात्माके प्रति समर्पित होती है उसके हृदयसे प्रेमका प्रवाह प्रवाहित होने लगता है । ऐसे प्रेम रसमें डुबी हुई आत्माएँ अपने प्रेमको शब्दके द्वारा व्यक्त नहीं कर सकतीं । उनके अंग प्रत्यङ्गसे प्रेम प्रकट होता है इसलिए उनकी वाणीके साथ-साथ सारी चेष्टायें प्रेमसे ओतप्रोत होती हैं ।
प्रेमलक्षणा भक्तिकी दशाकी पराकाष्टाका वर्णन ..
रस मगन भई सो क्या गावे।
विचली बुध मन चित मनुआ, ताए सबद सीधा मुख क्यों आवे ।।
विचले नैन श्रवन मुख रसना, विचले गुन पख इन्द्री अंग ।
विचली भांत गई गत प्रकृत, विचल्यो संग भई और रंग ।।
विचली दिसा अवस्था चारों, विचली सुध ना रही सरीर ।
विचल्यो मोह अहंकार मूलथें, नैनों नींद न आवे नीर ।।
विचल गई गम वार पारकी, और अंग न कछुए सांन ।
पिया रसमें यों भई महामत, प्रेम मगन क्यों करसी गांन ।।
प्रणाम जी
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