Sunday, August 16, 2015

शरीर रचना और सदउपयोग


सर्वप्रथम हम इन्द्रियाँ और उनके कार्यों पर विचार करते हैं । संस्कृत भाषामें इन्द्रियोंको करण कहा है जिसका अर्थ होता है साधन । करण अर्थात् इन्द्रियाँ मुख्यतया दो प्रकारकी होती हैं । एक बाहरकी इन्द्रियाँ अर्थात् बाह्यकरण दूसरी अन्तरकी इन्द्रियाँ अर्थात् अन्तःकरण । बाहरकी इन्द्रियाँ भी दो प्रकारकी होती हैं । उनमेंसे कुछ इन्द्रियोंसे ज्ञानन प्राप्त होता है और कुछ इन्द्रियोंके द्वारा कर्म किए जाते हैं । जिनके द्वारा ज्ञानन प्राप्त होता हैं उनको ज्ञाननेन्द्रियाँ और जिनके द्वारा कर्म किए जाते हैं उनको कर्मेन्द्रियाँ कहा जाता है । ज्ञाननेन्द्रियाँ भी पाँच प्रकारकी होती हैं और कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच प्रकारकी होती हैं । इस प्रकार बाहरकी इन्द्रियाँ कुल दस प्रकारकी होती हैं ।

जिनके द्वारा ज्ञानन प्राप्त होता है वे पाँच ज्ञाननेन्द्रियाँ इस प्रकार हैं,
१. श्रोत्र(कान)के द्वारा श्रवण किया जाता है अर्थात् शब्दका ज्ञानन होता है ।
२. चक्षु(नेत्र)के द्वारा देखा जाता है अर्थात् रूप रंगका ज्ञानन होता है ।
३. घ्राण(नासिका)के द्वारा सूँघा जाता है अर्थात् गन्धका ज्ञानन होता है ।
४. त्वचा(चमड.ी)के द्वारा स्पर्श किया जाता है अर्थात् शीत, उष्ण, कठोर कोमल आदिका ज्ञानन होता है ।
५. रसना(जीभ)के द्वारा रसका आस्वादन किया जाता है अर्थात् स्वादका ज्ञानन प्राप्त होता है ।
इस प्रकार इन ज्ञाननेन्द्रियोंके द्वारा बाह्य जगतका ज्ञानन प्राप्त होता है ।

जिनके द्वारा कर्म किए जाते हैं उन पाँच कर्मन्द्रियोंमें
१. वाक्(वाणी)के द्वारा बोला जाता है अर्थात् शाब्दिक अभिव्यक्ति होती है,
२. पाणि(हाथ)के द्वारा विभिन्न प्रकारके कार्य किए जाते हैं,
३. पाद(चरण)के द्वारा चलनेका कार्य होता हैं,
४. पायु(गुदा)के द्वारा मलत्याग होता है और
५. उपस्थ(जननेन्द्रिय)के द्वारा मूत्रत्याग किया जाता है ।

उपर्युक्त दस इन्द्रियाँ बाह्यकरण अर्थात् बाह्य साधन हैं । इनके अतिरिक्त अन्दरकी इन्द्रियाँ अन्तःकरण अर्थात् अन्तरके साधन हैं । वे चार प्रकारके हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । ये आन्तरिक साधन बाह्य साधनोंसे सूक्ष्म होते हैं । इन चारोंको एक ही शब्दमें सत्त्व कहा है । एक ही सत्त्वकी भी चार प्रकारकी भिन्न भिन्न कार्यशक्तिके कारण इसके भिन्न-भिन्न चार नाम पड.े हैं । इनमें मनन करनेकी शक्तिके कारण मन, निश्चय करनेकी शक्तिके कारण बुद्धि, चिन्तन करनेकी शक्तिके कारण चित्त एवं अभिमान करनेकी शक्तिके कारण अहंकार इस प्रकार नामाभिधान हुआ है । कुछ शास्त्रोंमें मन और बुद्धिमें क्रमशः चित्त और अहंकारका समावेश होना बतया गया है । आन्तरिक साधन होनेके कारण इनको अन्तःकरण एवं सूक्ष्म और प्रबल शक्तिके कारण सत्त्व कहा गया है ।

शरीरमें बाहरसे दिखनेवाली एवं अन्दर होनेके कारण न दिखनेवाली मात्र अनुभव किए जानेवाली ये बाह्य एवं अन्तरकी इन्द्रियाँ सभी करण अर्थात् साधन हैं। इन सभीको साधनके रूपमें जाननेके पश्चात् हमें यह जिज्ञानसा होनी चाहिए कि वास्तवमेंये साधन किसके हैं, इन साधनोंका उपयोग कौन करता है ? यदि हम यह जानना चाहेंगे तो हमारी खोज बढ.ेगी और हम मनन, चिन्तन करने लगेंगे । तब हमें ज्ञानन होंगा कि ये सभी साधन आत्माके लिए हैं । हम स्वयं आत्मा हैं । इसलिए ये सभी साधन हमारे लिए हैं । परमात्माने हमें शरीर प्रदान किया तो इसे इन सभी साधनोंसे सुसज्जित कर प्रदान किया है । वास्तवमें यह शरीर ही एक साधन है । विभिन्न प्रकारके अंग प्रत्यंगोंसे युक्त इस स्थूल शरीरको उपर्युक्त सूक्ष्म साधनोंके द्वारा सुसज्जित किया गया है ।

इतना जाननेके पश्चात् एक और जिज्ञानसा प्रकट होनी चाहिए । वह इस प्रकार है, परमात्माने हमें ऐसा साधनसम्पन्न शरीर क्यों प्रदान किया है ? यह जिज्ञानसा उत्पन्न होते ही हम उसकी खोज करना आरम्भ करेंगे । यही खोज हमें स्वयंकी पहचान करवायेगी । तत्पश्चात् परमात्माकी पहचान होगी । यह मनुष्य शरीर परमात्माको प्राप्त करनेके लिए दिया गया साधन है । इतना जानने पर हमें यह भी विचार करना चाहिए कि जिसके लिए यह शरीर प्राप्त हुआ हैं, क्या वह कार्य हम कर रहे ? यदि कर रहे हैं तो ठीक है, इस कार्यको और आगे बढायें । यदि नहीं कर रहे हैं तो हमें यह कार्य कर लेना चाहिए अन्यथा हम स्वयंको भी धोखा दे रहे हैं और परमात्माको भी धोखा दे रहे हैं 

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