Thursday, August 6, 2015

संसार से परे का ग्यान

सुपन बुध बैकुण्ठ लों , या निरंजन निराकार ।

सो क्यों सुन्य को उलंघ के , सखी मेरी क्यों कर लेवे पार ।। ( श्री मुख वाणी- परि. २/४ )

इस माया के संसार में परब्रह्म का स्वरूप नहीं है । इस कालमाया के ब्रह्माण्ड के शब्द , मन , चित्त और बुद्धि के द्वारा निराकार से आगे नहीं जाया जा सकता है । सपने की बुद्धि बैकुण्ठ और निराकार तक ही जा सकती है । इससे भी परे बेहद एवं उससे परे अक्षर-अक्षरातीत तक सपने की बुद्धि की पहुँच हो ही नहीं सकती है ।

गीता में पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि एवं अहंकार को अपराशक्ति कहा गया है क्योंकि यह बनते और मिटते हैं । यह मिथ्या नाशवान शक्ति हैं । ( गीता ७/४ )

इस अपरा से परे दूसरी चेतन अखण्ड शक्ति है , जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बनता है (गीता ७/५)। अतः जिससे करोड़ों ब्रह्माण्ड पैदा होते हैं और नष्ट होते हैं , उसे ही पराशक्ति कहते हैं । उसे बेहद मण्डल , योगमाया अथवा अक्षर ब्रह्म का चतुर्ष्पाद स्वरूप भी कहते हैं ।

 प्रणाम जी

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