हे मेरी आत्मा ! यदि तुम्हारे जीव का हृदय निर्मल नहीं है तो शरीर को बार- बार जल से नहलाने से कोई लाभ नहीं है। शरीर को स्वच्छ रखकर यदि तूं दिखावे वाली कर्मकाण्ड की भक्ति करोड़ों बार भी करोगी तो भी प्रियतम परब्रह्म से मिलन नहीं होगा।
आत्मा प्रतिबिम्ब है परआतम का। अतः उसके विकार ग्रस्त होने का प्रश्न ही नहीं। वह तो जीव पर बैठकर दृष्टा के रूप में इस खेल को देख रही है। आत्मा का दिल अलग है और जीव का दिल अलग है। जन्म-जन्मान्तरों से जीव का दिल मायावी विकारों से ग्रसित है, इसलिये उसके ही निर्मल होने की आवश्यकता है। आत्मा या उसके दिल को निर्मल करने का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि वह स्वभाव से ही निर्मल है, आवश्यकता है केवल जगत से आत्मिक दृष्टि को हटाकर युगल स्वरूप की ओर लगा देने की।
परणाम जी
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