सेवन है पुरुषोत्तम , गोत्र चिदानन्द जान ।
परम किशोरी इष्ट है , पतिव्रता साधन मान ।।७८।।
सेवन अर्थात जीवों के लिय भक्ति, पर बृह्म आत्माओं के लिय इसका अर्थ कहीं गहन है सेवन अर्थात ग्रहण करना हम जो सेवन करते हैं या जो ग्रहण करते हैं उसी से हमें आचार विचार व्यवहार व उर्जा मिलती है इसी प्रकार बृह्मआत्मांये केवल पूरणबृह्म को सेवती है अर्थात ग्रहण करतीं है तो उनका आचार विचार व्यवहार आदी सब ही बृह्ममय हो जाता है ..इसलिय मेरे धाम की आत्मांये क्षर व अक्षर से परे एकमात्र उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम) अक्षरातीत को ही सेवती हैं ।ब्रह्मआत्मों में किसी सांसारिक पुरुष से गोत्र नहीं माना जाता, अपितु परब्रह्म अक्षरातीत व उनकी आनन्द अंग (चिदानन्द युगल स्वरूप) को ही गोत्र माना गया है ।
परब्रह्म अक्षरातीत की आनन्द अंग श्री श्यामा जी (परम किशोरी), जिन्हें वेद में युवा स्वरूप वाला कहा गया है, को ही ब्रह्मसृष्टियों का इष्ट माना गया है क्योंकि वे सब उन्ही की अंग हैं । भक्ति का साधन नवधा भक्ति से परे अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति है अर्थात् आत्माएं अक्षरातीत को अपना पति (प्रियतम) मानकर अनन्य प्रेम के मार्ग पर चलती हैं । परमधाम की पवित्र लीला में इन लौकिक (पति-पत्नी) सम्बन्धों का अभाव है परन्तु संसार में अनन्य प्रेम को दर्शाने का यही एकमात्र साधन है । वेद में भी आत्मा को पत्नी कहा गया है ...
प्रणाम जी
परम किशोरी इष्ट है , पतिव्रता साधन मान ।।७८।।
सेवन अर्थात जीवों के लिय भक्ति, पर बृह्म आत्माओं के लिय इसका अर्थ कहीं गहन है सेवन अर्थात ग्रहण करना हम जो सेवन करते हैं या जो ग्रहण करते हैं उसी से हमें आचार विचार व्यवहार व उर्जा मिलती है इसी प्रकार बृह्मआत्मांये केवल पूरणबृह्म को सेवती है अर्थात ग्रहण करतीं है तो उनका आचार विचार व्यवहार आदी सब ही बृह्ममय हो जाता है ..इसलिय मेरे धाम की आत्मांये क्षर व अक्षर से परे एकमात्र उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम) अक्षरातीत को ही सेवती हैं ।ब्रह्मआत्मों में किसी सांसारिक पुरुष से गोत्र नहीं माना जाता, अपितु परब्रह्म अक्षरातीत व उनकी आनन्द अंग (चिदानन्द युगल स्वरूप) को ही गोत्र माना गया है ।
परब्रह्म अक्षरातीत की आनन्द अंग श्री श्यामा जी (परम किशोरी), जिन्हें वेद में युवा स्वरूप वाला कहा गया है, को ही ब्रह्मसृष्टियों का इष्ट माना गया है क्योंकि वे सब उन्ही की अंग हैं । भक्ति का साधन नवधा भक्ति से परे अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति है अर्थात् आत्माएं अक्षरातीत को अपना पति (प्रियतम) मानकर अनन्य प्रेम के मार्ग पर चलती हैं । परमधाम की पवित्र लीला में इन लौकिक (पति-पत्नी) सम्बन्धों का अभाव है परन्तु संसार में अनन्य प्रेम को दर्शाने का यही एकमात्र साधन है । वेद में भी आत्मा को पत्नी कहा गया है ...
प्रणाम जी
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