में देख रहा था की नदी में चन्द्रमा का प्रतिबिंब था कुछ पतंगे उड़ रहे थे वो नदी के प्रतिबिंब को ही चन्द्रमा समझ कर पानी की तरफ जा रहे थे और तड़फ तड़फ कर प्राण त्याग रहे थे कुछ और पतंगे आ रहे थे वो उन पतंगो को मरते हुए भी देख रहे थे पर वो भी अन्धो की भाती उस नदी में ही गिरे जा रहे थे वास्तविक चन्द्रमा को कोई नही देख पा रहा था ...
यही हाल हमारा है परमात्मा से विपरीत हो गए है आनंद परमात्मा की बजाए संसार में ढूंढ रहे है और काल के ग्रास बन कर अपने अनेक जीवन वयर्थ कर चुके है अब भी देख रहे है की लोग काल के ग्रास बन रहे है किसी को अखंड आनंद नही मिल रहा फिर भी अंधे बने हुए है ..
सुधार अपने अंदर साधक को स्वयं करना है और भूलकर भी ये न सोचो कि भविष्य में कोई दिव्य शक्ति साधना करेगी। दिव्य शक्ति को जो कुछ करना है वह स्वयं करती है। उसके किए हुए अनुग्रह को भगवदप्राप्ति के पूर्व कोई समझ नहीं सकता। यही गंदी आदत यदि तुरंत नहीं छोड़ी तो नासूर बनकर विकर्मी बना देगी और फिर उच्छृंखल होकर कहोगे सब कुछ उन्ही को करना है। इसलिए तुरंत निश्चय बदलो..
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प्रणाम जी
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