Sunday, August 9, 2015



जब तक मैं प्रमात्मा के स्वरूप के प्रति अनजान थी, तब तक तो मैं अपने अपार आत्मिक सुख को खोती रही। अब जब मुझे प्रमात्मा के स्वरूप की पहचान हो गयी है, तो मैं अपने आत्मिक सुख (धन) को क्यों खोऊँ ? माया की निद्रा में जो सम्पदा (आत्मिक धन) मैंने खो दी, उसके प्रायश्चित् की अग्नि में मैं अभी तक जल रही हूँ।

प्रेम के स्वरूप की वास्तविक पहचान परमधाम की इन आत्माओं को ही होती है। एकमात्र ब्रह्मसृष्टियां ही प्रेम की राह अपना पाती हैं। प्रेम ही इनका भोजन है और प्रेम ही जल पीना भी है।

प्रेम की राह अपनाना अर्थात् प्रमात्मा
 को आत्मिक चक्षुओं से देखना एवं अपने हृदय-मन्दिर में बसाना भोजन करना है तथा उनकी शोभा में स्वयं को डुबो देना जल पीना है। इसके बिना वास्तविक आहार (आत्मिक) नहीं माना जा सकता।

Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

No comments:

Post a Comment