Saturday, August 15, 2015

कामना

जीव को जब तक स्वयं आनंद प्राप्ति नहीं हो जाती, वह चाहकर भी दूसरे के सुख के लिये नहीं सोच सकता.
सुख चाहना जीव का सहज स्वभाव है, वह आनंद स्वरुप परमात्मा का अंश है.
संसार में कोई भी रिश्ता इसी स्वार्थ पर टिका हुआ है, सब एक दूसरे से अपना सुख चाहते हैं, कोई किसी से निःस्वार्थ प्रेम नहीं कर सकता भगवत्प्राप्ति तक.
इस संसार में सुख और दुःख दोनों नहीं हैं. इस पर गहराई से विचार करना चाहिये.
सुख की वास्तविक परिभाषा है 'यो वै भूमा तत्सुखम' अर्थात् जो अनंत मात्रा का हो, अनंत काल के लिये मिले, कभी छिने ना और उस पर कभी दुःख का अधिकार न हो.
संसार की किसी वस्तु में ऐसी बात नहीं होती. वह सुख सीमित होता है, क्षणिक-नश्वर होता है, प्रतिक्षण घटमान होता है और एक अवस्था में उसी वस्तु से दुःख मिलने लगता है.
दूसरी बात कि अगर किसी वस्तु में सुख होता तो वह सबको मिलता और सदा मिलता. संसार में ऐसा भी नहीं होता. शराब से शराबी को सुख तो एक कर्मकांडी को घोर दुःख होता है.
वास्तव में संसार की किसी वस्तु में जितना स्वार्थ या सुख हम मान लेते हैं, बस उसी का चिंतन होने लगता है, फलस्वरूप उसी में आसक्ति हो जाती है फिर उसी की कामना बनने लगती है.
यह कामना जितनी बलवती होती है उस वस्तु की प्राप्ति में उतना ही सुख हमें मिलता है और अगर वस्तु न मिले या छिन जाय तो उतनी ही मात्रा का दुःख हमको मिलता है.
अर्थात् सुख या दुःख वस्तु में नहीं होता, हमारे मानने पर निर्भर करता है. अगर हम सुख न मानें तो दुःख भी कभी न मिले.
संसार में दुःख के कम होने की लिमिट को ही हम सुख मान लेते हैं.
किसी भी वस्तु में सुख मान लेने से उसमे आसक्ति हो जाती है, और इससे कामना पैदा हो जाती है. यह कामना मन का सबसे बड़ा रोग है.
कामना समस्त दुखों की जननी है, पूरी हुई तो लोभ और न हुई तो क्रोध अपने आप तत्क्षण ही पैदा हो जाता है. इस कामना को अगर कोई मिटा दे तो शास्त्र कहते हैं, वह भगवान् के बराबर हो जाय.
लेकिन सुख की कामना करना जीव का स्वभाव है, अटल स्वभाव. क्योंकि वह आनंद का अंश है. लेकिन वह संसार में ही आनंद चाहे यह अटल नहीं है.
संसार में सुख नहीं है, परमात्मा में ही सुख है यह दृढ़ निश्चय करके बार बार परमात्मा में ही सुख का चिंतन करने से परमात्मा में ही आसक्ति हो जायेगी और फिर परमात्मा की ही कामना होगी.
इस प्रकार संसार के स्वरुप पर बार बार विचार करके संसार से वैराग्य करना है और परमात्मा में अनुराग. लेकिन इसके बीच भी एक अति महत्वपूर्ण तत्व है, इसकी चर्चा अगले प्रवचन में की जायेगी.

प्रणाम जी

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